पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

कुछ सोचकर वाट्मन ने कहा- नही, मैं इन बाता को अच्छी तरह जानता भी नही, और देखता हूँ तो दोनो ही अपना भला-बुरा समझने लायक हैं । फिर मै क्यो ? ___आह । यह मेरा मतलब नही था । मैं तो प्राणी का प्राणी स जीवन-भर के सम्बन्ध म बंध जाना दासता समझती हूँ, उसम आगे चलकर दोनो के मन म मालिक बनने की विद्रोह-भावना छिपी रहती है। विवाहित जीवनो म, अधिकार जमाने का प्रयत्न करते हुए स्त्री-पुरुप दोनो ही देखे जाते है । यह तो एक झगडा मोल लेना है। ___ओहो । तब आप एक सिद्धान्त की वात कर रही थी-वाट्सन न मुस्कराकर कहा । कुछ भी हो, वावाजी । आपको इसम समझ-बूझकर हाथ डालना चाहिए । --न जाने किस भावना से प्रेरित होकर वदी क पास ही खडे हुए इन्द्रदेव ने कहा । उनके मुख पर झुंझलाहट और सन्तोष की रेखाएं स्पष्ट हो उठी। रामनाथ ने उनको और तितली को देखते हुए कहा-कुंवर साहब | मधुबन ही तितली के उपयुक्त वर है । मैं अपना दायित्व अच्छी तरह समझकर ही इमम पडा हूँ। कम-से-कम जो लोग इस सम्बन्ध म यहाँ वातचीत कर रहे है, उनसे मेरा अधिक न्यायपूर्ण अधिकार है। ___ इन्द्रदव तिलमिला उठे। भीतर की वात वह नही समझ रहे थे, किन्तु मन क ऊपरी सतह पर तो यह आया कि यह बाबा प्रकारान्तर से मेरा अपमान कर रहा है। उधर से चौबे ने कहा--अधिकार | यह कैसा हठीला मनुष्य है, जो इतन बडे अफसर और अपने जमीदार के सामने भी अपने को अधिकारी समझता है । सरकार । यह धर्म का ढोग है । इसके भीतर बडी कतरनी है । इसने सारे गाँव म ऐसी बुरी हवा फला दी है कि किसी दिन इसके लिए बहुत पछताना होगा, यदि समय रहते इसका उपाय न किया गया । ___इन्द्रदेव की कनपटी लाल हो उठी। वह क्रोध को दबाना चाहते थे शैला के कारण । परन्तु उन्ह असह्य हो रहा था। शैला ने खडी होकर कहा---एक पल-भर रुक जाइए। क्या मधुबन । तुम पूरी तरह से विचार करके यह व्याह कर रह हो न ? कोई तुमको बहका तो नहीं रहा है ? इसम तुम प्रसन हो ? सम्पूर्ण चेतनता से मधुबन ने कहा- हाँ ? और तुम तितली ३१२ प्रसाद वाङ्मय