पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३५४

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है। तुम जानती हो कि तहसीलदार मुझसे तो बुरा मानता ही है । तो तुम डर रहे हो। डर नही रहा है। पर क्या आगा-पोछा भी नही सोचना चाहिए । वाबाजी ता काशी चले गये सन्यासी होन, विश्राम लेने। ठीक ही था। उन्होन अपना काम-काज का भार उतार फेका । पर यदि मैं भूलता नहीं हूँ तो उन्होने जाने के समय हम लोगो को जो उपदेश दिया था उसका तात्पर्य यही था कि मनुष्य को जान-बूझकर उपद्रव मोल न लेना चाहिए। विनय और कष्ट सहन करन का अभ्यास रखते हुए भी अपने को किसी से छोटा न समझना चाहिए, और वडा बनने का घमण्ड भी अच्छा नही होता । हम लोग अपने कामो से ही भगवान को शीघ्र कष्ट पहुंचाने और उन्हे पुकारने लगते हैं । वस करो। मैं जानती है कि वावाजी इस समय होते तो क्या करते और मैं वही कर रही हूँ जो करना चाहिए। मलिया अनाथ है। उसकी रक्षा करना अपराध नही । तुम कहाँ जा रहे हो ? ____जाने को तो मैं इस ममय छावनी पर ही था, क्योकि सुना है, वहाँ एक पहलवान आया, उसकी कुश्ती होने वाली है, गाना-बजाना भी होगा। पर अब मैं वहाँ न जाऊँगा, नील-पोठी जा रहा है। जल्द आना, दगल देख आओ। खा-पोकर नील-काठी चले जाना। भाज वसन्त-पचमी की छुट्टी नहीं है क्या ?-तितलो ने कहा। अच्छा जाता हूँ-कहता हुआ अन्यमनस्क भाव से मधुवन वनजरिया के बाहर निकला । सामने ही रामजस दिखाई पड़ा। उसने कहा-मधुबन भइया, कुश्ती देखने न चलोगे? ___ अकेले तो जाने की इच्छा नही थी, पर जब तुम भी आ गये तो उधर ही चलूंगा। भइया ! लंगोट ले लूं। अरे क्या मैं कुश्ती लड़गा? दुत । कौन जाने कोई ललकार ही बैठे। इस समय मेरा मन कुश्ती लडने लायक नही । वाह भइया, यह भी एक ही रही। मन लडता है कि हाथ-पैर । मैं देख आया हूँ उस पहलवान को । हाथ मिलाते ही न पटका आपने तो जो कहिए में हारता है। मधुवन अव कुश्ती नही लड़ सकता रामजस ! अब उसे अपनी रोटी-दाल स लडना है। ३२६ : प्रसाद वाङ्मय