पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३५८

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धूप निकल जायो है, फिर भी ठढ स लाग ठिठुरे जा रहे हैं। रामजस के साथ जो लडका दवा लेन के लिए शैला की मज क पास खडा है, उसकी ठुड्ढी काँप रही है । गले के समीप कुर्ता का अश बहुत-सा फट कर लटक गया है, जिससे उसक छाती की हड्डिया पर नसें अच्छी तरह दिखायी पडती है। शैला न उस देखत ही कहा-रामजस । मैंन तुमको मना किया था । इसे यहाँ क्या ले आये ? पाने क लिए सागूदाना छोडकर और कुछ न दना | ठड बचाना। मम साहब, रात का ऐसा पाला पड़ा कि सब मटर झुलस गई। हरी मटर शहर म वचन के लिए जा ले जात तो सागूदाना ल आते। अब तो इसी को भून कर कच्चा-पक्का पाना पडेगा । वही इस भी मिलेगा। तब तो इसे तुम मार डालागे । मरता ता है ही । फिर क्या किया जाय ? रामजस की इस बेबशी पर शैला काँप उठी। उसन मन म सोचा कि इन्द्रदव से कहकर इसके लिए सागूदाना मंगा दे। सब बाता के लिए इन्द्रदेव से कहला देने का अभ्यास पड गया था। फिर उसको स्मरण हो आया कि इन्द्रदेव तो यहाँ नही है । वह दुखी हा गई। उसका हृदय व्याथा से भर गया । इन्द्रदेव की निर्दयता पर--नहीं-नही, उनकी विवशता पर—वह व्याकुल हो उठी। रामजस का बिदा करते हुए उसने कहा- मधुबन से कह देना, वह तुम्हारे लिए सागूदाना ले आयेगा। यही एक छोटा भाई है मम साहव I माँ बहुत राती है । जाओ रामजस । भगवान सब अच्छा करेगा। रामजस तो चला गया । शैला उठकर अपने कमरे म टहलने लगी । उसका मन न लगा । वह टीले स नीचे उतरी, झील के किनारे-किनारे अपनी मानसिक व्यथाओ के बोझ से दबी हुई, धीरे-धीरे चलने लगी। कुछ दूर चलकर वह जब कच्ची सडक की ओर फिरी तो उसन देखा कि अरहर और मटर के खत काले ३३० प्रसाद वाङ्मय