पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३५९

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हाकर सिकुडी हुई पत्तियो म अपनी हरियाली बुटा चुके हैं । अब भी जहा सूर्य की किरणे नही पहुँचती हैं, उन पत्तिया पर नमक की चादर-सी पडी है । कच्चे कुएं के जगत पर सिर पकडे हुए एक किसान बैठा है। उसके सामने भरी हुई खेती का शव झुलसा पडा है। उसकी प्रसनता और साल भर की आशाओ पर वज की तरह पाला पड़ गया। गृहस्थी के दयनीय और भयानक भविष्य के चित्र उसकी आखा के सामन, पीछे जमीदार के लगान का कंपा देने वाला भय ! दैव का अत्याचारी समझकर ही जैसे वह सतोप से जीवित है। क्यो जी ? तुम्हारे खत पर भी पाला पडा है ? आप देख तो रही है मेम साहब-दुख और क्रोध से किसान न कहा । उसको यह असमय की सहानुभूति व्यग्य-सी मालूम पडी। उसने समझा मेम साहब तमाशा देखने आई है। शैला जैसे टक्कर खाकर आगे बढ़ गई। उसक मन में रह-रहकर यही बात आती है कि इस समय इन्द्रदेव यहाँ क्या नहीं है, अपने ऊपर भी रह-रहकर उस कोधा आता कि वह इतनी शीतल क्यो हा गई। इन्द्रदेव को वह जाने से रोक सकती थी, किन्तु अपने रूखे-सूखे व्यवहार से इन्द्रदेव के उत्साह को उसी ने नष्ट कर दिया, और अब यह ग्राम सुधार का व्रत एक बोझ की तरह उसे ढाना पड़ रहा है । तब क्या वह इन्द्रदेव से प्रेम नही करती ! ऐसा तो नही, फिर यह सकोच क्यो ? वह सोचने लगी-उस दिन इन्द्रदेव के मन में एक सन्देह उत्पन्न करके मैने ही यह गुत्थी डाल दी है। तब क्या यह भूल मुझे ही न सुधारनी चाहिए ? वसत पचमी को माधुरी ने बुलाया था, वहाँ भी न गई। उन लोगा ने भी बुरा मान लिया होगा। उसने निश्चय किया कि अभी मैं छावनी पर चलूं। वहां जाने से इन्द्रदेव का भी पता लग जायगा। यदि उन लोगा की इच्छा हुई तो मैं इन्द्रदेव को वुलाने के लिए चली जाऊँगी, और इन्द्रदेव से अपनी भूल के लिए क्षमा भी माग लूंगी। वह छावनी को ओर मन-ही-मन सोचते हुए घूम पड़ी। बीच म मधुबन दिखाई पड़ा । शैला का मन प्रसन्न वातावरण बनाने की कल्पना से उत्साह स भर उठा था। उसने कहा-मधुबन । तितली से कह देना, आज दोपहर को मैं उसके यहाँ भोजन करूंगी, मैं छावनी स होकर आती हूँ। मैं भी साथ चलू-मधुबन ने पूछा। नही, तुम जाकर तितली से कह दो भाई, मैं आती हूँ।-कहकर वह लम्बा तितलो ३३१