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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३६२

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बहुत चाहा कि वे रोक लिए जायं । उन्होंने कहलाया भी, पर मैं इसका विरोध करती रही । मैं फिर सामने न गयी। वह चले गये। शैला ने सान्त्वना देते हुए कहा-जो होना था सो हो गया । अव दुख करने से क्या लाभ ? हम लोगो का भी आज शहर जाना निश्चित है। मां कहती है कि अब यहाँ न रहूंगी । भाई साहब का पता चला है कि बनारस में ही है। उन्होंने वैरिस्टरी आरम्भ कर दी है । हो, कोठी पर वह नही रहते, अपने लिए कही बंगला ले लिया है। __ वह और कुछ कहना चाहती थी कि चीच ही में किसी ने पुकारा-बीवीरानी! क्या है ?-माधुरी ने पूछ । मी जी आ रही हैं। आती तो रही, उन्हे उठकर आने की जल्दी क्या पडी थो? श्यामदुलारी भीतर आ गयी। उस वृद्धा स्त्री का मुख गम्भीर और दृढता से पूर्ण था। शैला का नमस्कार ग्रहण करते हुए एक कुर्सी पर बैठ कर उन्होने कहा--मिस शैला ! आप अच्छी हैं ? बहुत दिनो पर हम लोगो की मुध हुई। माँ जी | क्या करूं, आप ही का काम करती हूँ। जिस दिन से यह सव काम सिर पर आ गया, एक घड़ी की एट्टी नही । आज भी यदि एक घटना न हो जाते तो यहाँ आती या नही, इसमे सन्देह है । आपके गाँव भर में रात को पाला पड़ा । किसानो का सर्वनाश हो गया है। कई दवाएं भी नही हैं । तहसीलदार के पास लिख भेजा था । वे आयी कि नही और... शैला और भी जाने क्या-क्या कह जाती, क्योकि उसका मन चचल हो गया था। इस गृहस्थी की विशृखलता के लिए वह अपने को अपराधी समझ रही थी। उसकी बाते उखडी-उखडी हो रही थी। किन्तु श्यामदुलारी ने बीच ही में रोककर कहा-पाला-पत्थर पडने मे जमीदार क्या कर सकता है। जिस काम मे भगवान का हाथ है, उसमे मनुष्य क्या कर सकता है । मिस शैला, मेरी सारी आशाओ पर भी तो पाला पड गया। दोनो लडके वेकहे हो रहे हैं । हम लोग स्त्री है। अबला हैं । आज वह जीते होते तो दो-दो थप्पड लगाकर सीधा कर देते । पर हम लोगो के पास कोई अधिकार नही । ससार तो रुपये-पैसे के अधिकार को मानता है । स्त्रियो के स्नेह का अधिकार, रोने-दुलारने का अधिकार, तो मान लेने की वस्तु है न? अपनी विवशता और क्रोध से श्यामदुलारी की ऑखो से आँसू निकल आये। ३३४: प्रसाद वाङ्मय