________________
धामपुर में फिर सन्नाटा हो गया। जमीदार की छावनी मूनो थी। वनजरिया मे वावाजी नहीं। नील-कोठी पर शैला की छाया नही । उधर शेरकोट के खंडहर मे राजकुमारी अपने दुर्वल अभिमान में ऐठी जा रही थी। उसका हृदय काल्पनिक सुखो का स्वप्न देखकर चचल हो गया था। सुखदेव चौबे ने अकालजलद की तरह उसके सयम के दिन को मलिन कर दिया था। वह अब ढलते हुए यौवन को रोक रखने की चेष्टा में व्यस्त रहती है। उसकी झोपडी में प्रसाधन की सामग्री भी दिखाई पड़ने लगी। कही छोटासा दर्पण, तो कहीं तेल की शीशी। वह धीरे-धीरे चिकने पथ पर फिसल रही थी। और लोग क्या कहेगे, इस पर उसका ध्यान बहुत कम जाता । कभी-कभी अपनी मर्यादा के खोये हुए गौरव को क्षीण प्रतिध्वनि उसे सुनाई पडतो, पर वह प्रत्यक्ष सुख की आशा को-जिसे जीवन में कभी प्राप्त न कर सको थी-छोडने मे असमर्थ थी। मधुवन भी तो अब वहां नहीं आता। उस दिन ब्याह म राजकुमारी का वह विरोध उसे बहुत ही बला। उसे धीरे-धीरे राजकुमारी के चरित्र मे सन्देह भी हो चला था । किन्तु उसकी वही दशा थी, जैसे कोई मनुष्य भय से आय मूंद लेता है । वह नही चाहता था कि अपने सन्देह को परीक्षा करके कठोर सत्य का नग्न रूप देखे। मधुवन को नोल-कोठी का काम करना पड़ता । वहाँ से उसको कुछ रुपये मिलते थे। इसी बहाने को वह सब लोगो से कह देता कि उसे शेरकोट आनेजाने मे नौकरी के लिए असुविधा थी। इसीलिए वनजरिया मे रोटी खाता था। राजकुमारी की खीझ और भी बढ़ गई थी। यो तो मधुवन पहले ही कुछ नहीं देता था । राजकुमारी अपने बुद्धि-बल और प्रबन्ध-कुशलता से किसी-न-किसी तरह रोटी बनाकर खा-खिला लेती थी। पर जब मधुवन को कुछ मिलने लगा, तब उसमे से कुछ मिलने की जाशा करना उसके लिए स्वाभाविक था। किन्तु वह नहीं चाहती थी कि वास्तव म उसे मधुवन कुछ दिया करे । हाँ, वह तो यह तितलो : ३३६