पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

भी चाहती थी, मधुवन इसके लिए फिर शेरकोट म न आने लगे, और इससे नवजात विरोध का पौधा और भी बढेगा । विरोध उसका अभीष्ट था। सन्ध्या होने मे भी विलम्ब था । राजकुमारी अपने बालो मे कधी कर चुकी थी। उसने दर्पण उठाकर अपना मुंह देखा । एक छोटी-सी बिन्दी लगान क लिए उसका मन ललचा उठा । रोली, कुकुम, सिन्दूर वह नही लगा सकती, तब ? उसने नियम और धर्म की रूढि बचाकर काम निकाल लेना चाहा । वत्थे और चुने को मिलाकर उसने बिन्दी लगा ली। फिर से दर्पण देखा । वह अपने ऊपर रीझ रही थी। हां, उसम वह शक्ति आ गई थी कि पुरुष एक बार उसकी ओर देखता । फिर चाहे नाक चढाकर मुंह फिरा लेता। यह तो उसकी विशेष मनोवृत्ति है। पुरुप, समाज मे वही नहीं चाहता, जिसके लिए उसी का मन छिपेछिपे प्राय विद्रोह करता रहता है। वह चाहता है, स्त्रियां मुन्दर हो, अपन का सजाकर निकले और हम लोग देखकर उनकी आलोचना कर । वेश-भूषा के नयेनये ढग निकालता है । फिर उनके लिए नियम बनाता है। पर जो सुन्दर हान की चेष्टा करती हो, उसे अपना अधिकार प्रमाणित करना होगा। राजो ने यह अधिकार खा दिया था। वह बिन्दी लगाकर पडित दीनानाथ की लडकी के ब्याह मे नही जा सकती थी। दुख से उसने बिन्दी मिटाकर चादर ओढ ली। बुधिया, सुखिया और कल्लो उसके लिए कब से खडी थी। राजकुमारी को देखकर वह सब-की-सब हंस पड़ी। क्या है रे ?-अपन रूप की अभ्यर्थना समझते हुए भी राजकुमारी ने उनकी हँसी का अर्थ समझना चाहा । अपनी किसी भी वस्तु को प्रशसा कराने की साध बडी मीठी होती है न ? चाहे उसका मूल्य कुछ हो । बुधिया ने कहा-चलो मालकिन । बारात आ गई होगी। __जैसे तेरा ही कन्यादान होने वाला है। इतनी जल्दी ।--कहकर राजकुमारी घर में ताला लगाकर निकल गई । कुछ ही दूर चलते-चलते और भी कितनी ही स्त्रियां इन लोगो के झुड म मिल गई। अब यह ग्रामीण स्त्रियो का दल हंसतेखलते परस्पर परिहास मे विस्मृत, दीनानाथ के घर की ओर चला। ___अन्नो को पका देने वाला पश्चिमी पवन सर्राटे से चल रहा था । जो-गेहूँ के कुछ-कुछ पोले बाल उसकी झाक म लोट-पोट हो रहे थे। वह फागुन की हवा मन में नई उमग बढाने वाली थी, सुख-स्पर्श थी। कुतूहल से भरी ग्राम-बधुएं, एक-दूसरे की आलोचना म हंसी करती हुई, अपने रग-विरगे वस्त्रा में ठीकठीक शस्य-श्यामल खतो की तरह तरगायित्त और चचल हो रही थी। वह जगली पवन वस्त्रा से उलझता था। युवतियां उस समेटती हुई, अनेक प्रकार से अपने ३४० . प्रसाद याङ्मय