पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३९०

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महन्त का एक स्त्री क माय जानकर यहां भी काई नदा आया है, और न कुछ समय तक जावगा । उसका अपना जान बचान की सूझी। सामन सन्दूर का ढक्कन गुला था उसम स रुपया की थैली सपर उसन रमर म बांधी। इधर राजकुमारा का ज्ञान हुआ ता चिल्लाना चाहती था कि उसन कहा-चुप 1 वही दूकान पर माधा बैठा है। उस कर साधे घर ली जा। माधा स भी मत कहना । भाग ! अब मैं चला। मधुवन तो अगवार म पला गया। राजकुमारा थर-थर कांपता हुइ माधा के पास पहुँची। सडर पर सन्नाटा हा गया था। दहातो बाजार म पहर भर रात जान पर बहुत हा कम लोग दियाई पड़ रहे थे। मिठाई की दूकान पर माधो वा-पाकर सतुष्टि की सपको ल रहा था। राजकुमारा न उस उंगली स जगाकर अपन पीछे आने के लिए कहा । दाना बाजार के बाहर आये । एकक वाला एक तान छेडता हुआ अपने पाडे का घरहरा पर रहा था। राजकुमारा ने धारे स शरकोट को आर पर बढ़ाया । दाना हा किसा तरह का बात नहीं कर रहे थे । पाडा हो दूर आग बढ़ हागे कि कई पादमी दौड़ते हुए आय । उहोन माधो का रोका । माधो न कहा—क्या भाई । मरे पास क्या धरा है, क्या है। हम लाग एवं स्था का पाज रह है। वह अभा-अभा बिहाराजा के मन्दिर म आई था-उन लोगा न घबराये हुए स्वर म कहा। ___यह तो मरी लडकी है। भले आदमी क्या दरिद्र हाने क कारण राह भी न चनन पावगे? यह कैसा अत्याचार ? कहकर माधो आगे बढ़ा। उसके स्वर म कुछ एसी दृढता थी कि मन्दिर के नौकरा न उनका पीछा छोड़कर दूसरा मार्ग ग्रहण किया। प्रसादधामप