पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३९१

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मधुबन गहरे नशे से चौंक उठा था । हत्या । मैंने क्या कर दिया? फाँसो की टिकठी का चित्र उसके कालिमापूर्ण आकाश मे चारो ओर अग्निरेखा में स्पष्ट हो उठा । इमली के घने वृक्षो की छाया मे अपने ही प्रयासो से सिहर कर सोचता हुआ वह भाग रहा था। ____ तो, क्या वह मर गया होगा? नही-मैंने तो उसका गला ही घोट दिया है । गला घोटने से मूच्छित हो गया होगा । चैतन्य हो जायगा अवश्य ? थोडा-सा उसके हृदय की धडकन को विश्राम मिला । वह अब भी बाजार के पीछे-पीछे अपनी भयभीत अवस्था में सशक चल रहा था । महन्त की निकली हुई आँखें जैसे उसकी आँखो मे घुसने लगी। विकल होकर वह अपनी आंखो का मूंदकर चलन लगा, उसने कहा-नहीं, मैं तो वहां गया भी नही था। किसने मुझका देखा ? राजो । हत्यारिन ! ओह उसी को बुलाई हुई यह विपत्ति है । यह देखो, इस वयस में उसका उत्पात । हाँ, मार डाला है मैंने, इसका दण्ड दूसरा नही हो सकता। काट डालना ही ठीक था। तो फिर मैंने किया क्या, हत्या ? नही । और किया भी हो तो बुरा क्या किया। उसके सामने महन्त की निकली हुई आँखो का चित्र नाचने लगा। फिर--- तितली का निष्पाप और भोला-सा मुखडा । हाय-हाय । मधुवन ! तूने क्या किया । वह क्या करेगी ? कौन उसको रक्षा करेगा ? उसका गला भर आया । वह चलता जाता था और भीतर-ही-भीतर अपने राने को, सांसा को, दबाना जाता था। उसे दूर से किसी के दौडने का और ललकारने का भ्रम हुमा ।-अरे ! पकडा गया ता...। क्षण-मर के लिए रुका। उसने पहचाना, यह तो मैना के घर के पीछे की फुलवारी की पक्की दीवार है। तो वह छिप जाय । यही न, अच्छा अब तो मोचने का समय नहीं है । लो, वह सब आ गये। ___ छाटी-मो दीवार फांदते उमको क्या देर लगती । मैना को फुलवारी में अध तितलो : ३६५