पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४०५

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तुम क्षमा नहीं कर सकती हो? ~-इन्द्रदेव की मुक्तिमयो निश्चिन्त अवस्था व्यग कर उठी। शैला के हृदय मे जो आन्दोलन हो रहा था उसे और भी उद्वेलित करते हुए इन्द्रदेव ने फिर कहा-और यह पाठ भी ता तुम्ही से मैंने पढा है । उस दिन, तुमने जव मेरा प्रस्ताव अस्वीकार करते हुए कहा था कि 'काम किये विना रहना मेरे लिए असम्भव है, अपनी रियासत म मुझे एक नौकरी और रहने की जगह देकर बोझ से तुम इस समय के लिए छुट्टी पा जाओ,' तब तुम्हारी जो आज्ञा थी, वही तो मैंने किया। अपने इस त्यागपत्र मे नील-कोठी को सर्वसाधारण कामो–अर्थात् औपधालय, पाठशाला और हो सके तो ग्रामसुधार सम्बन्धी अन्य कार्यालय के लिए, दान करते हुए मैंने एक निधि उसमे लगा दी है जिसका निरीक्षण तुमको ही आजीवन करना होगा। उसके लिए तुम्हारा वेतन भी नियत है । इसके अतिरिक्त । ___ठहरो इन्द्रदेव | क्या तुम मुझे बन्दी बनाना चाहते हो? मैं यदि अब वह काम न करूं तो? –वीच ही मे रोककर शैला ने पूछा। नही क्यो ? तुमने मुझे जो प्रेरणा दी है, वही करके भी मैं क्या भूल कर गया ? और तुमने तो उस दिन दीक्षा लेते हुए कहा था कि 'तुम्हारे और समीप होन का प्रयत्न कर रही हूँ,' तो क्या यह सब करके भी मैं तुम्हारे समीप होने नही पाऊँगा? क्यो नही ? –कहते हुए सहसा नन्दरानी ने उसी कमरे में प्रवेश किया। शैला और इन्द्रदेव दोनो ही जैसे एक आश्चर्यजनक स्वप्न देखकर ही चौंक उठे। फिर नन्दरानी ने हंसते हुए कहा-मिस शैला, आप मुझे क्षमा करेंगी। मैं अनधिकार प्रवेश कर आई हूँ । इन्द्रदव से क्षमा मांगने की तो मैं आवश्यकता नही समझती। ____इद्रदेव जैसे प्रकृतिस्य होकर बोले-वैठिए भाभी | आप भी क्या कहती शैला ने लज्जा स अव अवसर पाकर नन्दरानी को नमस्कार किया । नन्दरानी न हँसकर कहा-ता मैं तुम दोना को हो आशीवाद देती हूँ, यह जोडी सदा प्रसन्न रहे । ___ अभिमान स भरा हुआ शैला का हृदय अपने को ही टटाल रहा था-क्या मेरे समीप आने के लिए ही इन्द्रदेव का वह त्याग है ?-~~-यह प्रश्न भीतर-भीतर स्वय उत्तर बन गया। तितली: ३८१