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शैला ने नन्दरानी की प्रसन्न आकृति मे विनोद की मात्रा देखी, वह क्षण भर के लिए अपने को वास्तविक जगत मे देख सकी। उसने एक साँस मे निश्चय किया कि 'हा' कह दूं । किन्तु अब प्रस्ताव करने मे कौन आगे बढे ? वह लज्जा और आनन्द से मुस्कुरा उठी। नन्दरानी ने भाव पहचानते ही कहा-मिस शैला ! जब तुम इन्द्रदेव को बहुत दूर तक अपने पथ पर खीच लाई हो, तब यो अकेले छोड देना क्या कायरता नहो ? बोलो, मैं किस दिन अपने इष्ट-मित्रो को निमत्रित करूं? मुझे इन्द्रदेव का ब्याह करने का अधिकार है । मैं उनकी कुटुम्बिनी हूँ । अब मुझे केवल तुम्हारी स्वीकृति चाहिए। शैला का सिर नीचे झुका हुआ था। उसकी ठुड्डी उठाकर नन्दरानी ने कहा----अब बहाना करन से काम नहीं चलेगा। कहो 'हाँ', बस मैं सब कर लूंगी। बहन ! मैं स्वीकार करती हूँ। परन्तु इधर मेरे मन की जो दशा है, वह जब तक तितली का कुछ उपाय.... सुप भी रहो; तितली, बुलबुल, कोयल, सबो का स्वागत होगा। पहले वसत का उत्सव तो होने दो। मैं तितली को अपने पास रखूगी । और इन्द्रदेव को उसकी सहायता करनी होगी। शैला को चुप देखकर फिर नन्दरानी ने कहा । इन्द्रदेव ! तुम बोलते क्यो नही ? क्या मैं तुम्हारी वकालत करूं और तुम बुद्ध बैरिस्टर बन कर बैठे रहो ? इन्द्रदेव हँसकर बोले-भाभी | ससार मे कई तरह के न्यायालय होते है । आज जिस न्यायालय मे खडा हूँ, वहाँ आप जैसे वकीलो का ही अधिकार है। ___तो फिर मैं ही तुम्हारी ओर से स्वीकृति देती हूँ। कल अच्छा दिन है । यही मेरे बंगले मे यह परिणय होगा । इन्द्रदेव, तुम्हारा महत्त्वपूर्ण आडम्बर हट गया है, तब तुम अपने मनुष्य के रूप मे वास्तविक स्वतन्त्रता का सुख लो। केवल स्त्री और पुरुप ही का सयोग जटिलताओ से नही भरा है । ससार के जितने सम्बन्धविनिमय है, उनमे निर्वाह की समस्या कठिन है। तुम जानते हो कि मैंने उसका त्यागपत्र फाड कर फेक दिया और रजिस्ट्री कराने के लिए उन्हे नही जाने दिया उनसे सब अधिकार लेकर मैं उनको अपदस्थ करके नहीं रखना चाहती । वे मेरे देवता हैं । उनकी बुराइयाँ तो मैं देख ही नही पाती हूँ। हां, अर्थ-सकट है सही, पर यही उनकी मनुष्यता है। धोखा देकर कई बार उनसे कुछ झंस लेने वाले मित्र भी फिर उनसे कुछ ले लेने को आशा रखते हैं। क्या यह मेरे गौरव की ३८२: प्रसाद वाङ्मय