पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४२२

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मधुवन चुपचाप इस विचित्र परिवार का दृश्य देख रहा था । उसके मन मे समय पर निर्भय हाकर निश्चिन्त भाव स ससार-यात्रा करते रहन का विचार घनीभूत होता जा रहा था। उसम अन्य मनुप्या से सहायता मिलने का लोभ भी छिपा था, वह मानमिर परावलम्वन की ओर दुलक रहा था । मनुष्य का कुछ चाहिए। वह किस तरह से आ रहा है, इस पर ध्यान देने की इच्छा नहीं रह गई। दूसर दिन बीरू न एक रिक्शा-गाडी मधुवन के लिए खरीद दी। मधुवन रात को उसे लेकर निकलता। वह सरलता से दो-तीन रुपये ले आन लगा। रामदीन उस दल का सवक बन गया। दिन का कोई काम न करके, रात का निकलने मे मधुवन को कोई अमुविधा न थी। कुछ लोग भीख मांगते हुए, कुछ लोग अवसर मिलने पर रात का कुली का काम भी कर लते । महीनो के भीतर ही एक रिक्शा और आ गई। अच्छी आय हाने लगी। उस दल के उडिया, बगाली और युक्तप्रान्तीय आनन्द से एक में रहत थे। रात के दस बजे थे । हबडा से चांदपाल घाट को जानेवाली सडक पर मधुबन अपनी रिक्शा लिए धीरे-धीरे चला जा रहा था। वह बैण्ड बजने वाले भडो पर खडा होकर गगा की धारा को क्षण भर के लिए देखने का प्रयत्न करन लगा । इतने म एक स्त्री का हाथ पकड हुए एक बाबू साहब लडखडाती चाल स रिक्शा के सामन आकर खड हो गये । मधुवन रुककर आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगा। दोनो ही मदिरा के नशे म झूम रहे थे। मधुबन ने पूछा-हबडा ? तुम पूछकर क्या करोगे, मैं जिधर चलता हूँ उधर चला । क्या ?--मधुवन ने पूछा। बडा बकवादी है। ता फिर बैठ जाइए। दोनो रिक्शा पर बैठ गये । मधुवन उन्ह खीच ले चला । हाँ, उन मदोन्मत्त विलासी धनियो के लिए वह पशु बन गया था। गगा का स्पर्श करके आती हुई शीतल वायु धीरे धीरे बह रही थी । मधुबन रिक्शा खीचते हुए सोच रहा था यदि मैं न छिपता तो फांसी होती। और न होगी, कभी मैं न पहचान लिया जाऊंगा, इसी पर कैसे विश्वास कर लूं। यह दुष्ट मनुष्यो का बोझ मैं गधो की तरह ढो रहा हूँ। मेरी शिक्षा | मेरा वह उनत हृदय 1 सब कहाँ गया। क्या मैं छाती ऊंची करके दण्ड झेलने में असमर्थ था। और भय का वह पहला झोका, उसी मे मैना ने मुझे भगाने के लिए हाँ, मैना, वह वेश्या | उसन मुझसे ३६८ प्रसाद वाङ्मय