पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४३९

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स्नेह के लिए, सन्तुष्ट है । मैं जानती हूँ कि वह दूसरी स्त्री को प्यार नहीं करते। कर भी नही सकते । कुछ दिनो तक मैना को लेकर जो प्रवाद चारो ओर फैला था, मेरा मन उस पर विश्वास नही कर सका। हां, मैं दुःखी अवश्य थी कि उन्हे क्यो लोग सन्देह की दृष्टि से देखते हैं । उतनी-सी दुर्वलता भी मेरे लिए अपकार हो कर गई । उनको मैं आगे बढ़ने से रोक सकती थी। किन्तु तुम वैसी भूल न करागी । इन्द्रदेव को भग्नहृदय बनाकर कल्याण के मार्ग का अवरुद्ध न करो । मानव के अन्तरतम मे कल्याण के देवता का निवास है। उसकी सवर्धना ही उत्तम पूजा है । मैं इधर मनोयोगपूर्वक पढ रही हूँ। जितना ही मैं अध्ययन करती हूँ उतना ही यह विश्वास दृढ़ होता जा रहा है जो कुछ सुन्दर और कल्याणमय है, उसके साथ यदि हम हृदय की समीपता बढाते रहे तो ससार सत्य और पवित्रता की ओर अग्रसर होगा। तितली का मुंह प्रसन्नता से दमक रहा था। थैला को अपने मन का समस्त वल एकत्र करके उससे आदर्श ग्रहण करने का प्रयत्न किया। वह एक क्षण मे ही मुन्दर स्वप्न देखने लगी, जिसमे आशा की हरियाली थी। अपनी सेवावृत्ति को जागरूक करने की उसने दृढ प्रतिज्ञा की। उसने तितली का हाथ पकडकर कहा-क्षमा करना वहन ! मैं अपराध करने जा रही थी । आज जैसे बाबाजी की आत्मा ने तुम्हारे द्वारा फिर से मेरा उद्धार किया । हम दोनो ने एक ही शिक्षा पाई है सही, परन्तु मुझमे कमी है, उसे पूर्ण करना मेरा कर्तव्य है। उस निर्जन ग्राम-प्रान्त में, जब धूप खेल रही थी, दो हृदयो ने अपने मुखदुख की गाथा एक-दूसरे को मुना कर अपने को हल्का बनाया । आसू भरी आँखे मिली और वे दुर्वल–किन्तु दृढता से कल्याण-पथ पर बढन वाले-हृदय, स्वस्थ होकर, परस्पर मिले। शैला नील-कोठी की ओर चली। उसके मन में नया उत्साह था नील-कोठी की सीढियो पर वह फुर्ती से चढी जा रही थी । वीच ही मे वाट्सन ने उसे रोका और कहा-मैं तुमसे एक बात कहना चाहता हूँ। ___उसने अपने भीतर के जेव से एक पत्र निकाल कर शैला के हाथ मे दिया । उसे पढते-पढते शैला रो उठी। उसने वाट्सन के दोना हाथ पक्ड कर व्यग्रता से पूछा-वाट्सन ! सच कहो, मेरे पिता का ही पत्र है, या धोखा है ? मै उनको हस्तलिपि नही पहचानती। जेल से भी कोई पत्र मुझे पहले नहीं मिला था। बोला, यह क्या है ? तितली: ४१५