पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४७५

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"यह तो परम भट्टारक ही कह सकते है।" "पुष्यमित्र ! तुमने उस दिन प्रार्थना की थी कि अग्निमिन का कोई अपराध नही । उसने तो नदी में कूद कर भागने वाली उस देवदासी को पकड ही लिया या।" सम्राट् न कहा। “परम भट्टारक ! और यह उसकी मनुष्यता की पुकार थी। वह कुछ मनस्वो तो अवश्य है, परन्तु मालवसेना प्रतिनिधि वीर है । मैंने स्वय उसे रणशिक्षा दी है; केवल उसकी मनस्विता के कारण ही राजभृत्य बनने से उसे वजित कर दिया है।" पुष्यमित्र ने सविनय कहा । "उसे यहाँ उपस्थित करो।" सम्राट् की आज्ञा मिलते ही महानायक पुष्यमित्र ने प्रस्थान किया। एक अधीन कर्मचारी को मुद्रा देकर कुछ आदेश दिया और स्वय उसी सोपान पर खडे रहे। उनकी व्यग्रता छिपने में असमर्थ थी । वे टहलने लगे। लोह-शृखला से जकडा हुआ अग्निमित्र सोपान पर चढ रहा था। सामने राजभृत्य पिता ! एक शब्द भी मेरे पक्ष मे कहने के लिए जिन्होंने मुंह नही खाला था। फिर भी ऊपर खडे महानायक पुष्यमित्र को उसने सिर झुकाया। पुप्यमित्र केवल धीरे से इतना ही बोले-"सावधान | उत्तेजित न हाना ।" आगे दण्डनायक पिता, पीछे बन्दी पुत्र-दोनी सम्राट् के सिंहासन के समीप पहुंचे। अग्निमित्र सिर झुकार्य खडा रहा। कुसुमपुर की राज-परिषद् उसने आज पहले ही देखी। "अग्निमिन " "सम्राट् !" उसने चांककर दखा। वही मन्दिर मे इरावती के जून्य पर प्रतिवन्ध लगाने वाला। उसे भिक्षुणी बनाने की आज्ञा देन वाला कुमारामात्य नामधारी आज साम्राज्य के सिंहासन पर आसीन है । "तुम अपना अपराध स्वीकार करते हो ?" "नही ।"-उसका सशिप्त उत्तर था । "तो तुमने राजबन्दी को छीनने का प्रयल नही क्यिा ?" "ऐसी करने की इच्छा थी। किन्तु सम्राट् के सामने हो मन्दिर म जब वह बन्दी बनाई जा रही थी तभी! किन्तु किया नही, कर भी नहीं सका। और वह ता तो आकस्मिक घटना थी। एक स्त्री जल मे गिर पड़ी है और मैं नाव पर उसी के समीप हूँ। तर मालवो की, प्रधानतः शुगवन की मनुप्यता क्या इतनी गिर गई है कि मैं उसे डूब कर मर जान देता। नहीं सम्राट् ! मुझसे यह नही हो सकता था। यदि यही मेरा अपराध है, तो मुझे दण्ड दीजिए।" इरावती : ४५५