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कुक्टाराम के भिक्षुणी-विहार के प्राचीर से सटे हुए एक लम्बे चक्रम पर, द्वार के भीतर स तीन भिक्षुणियां वाहर आ रही हैं । मूर्यास्त हो चला है। हलका अन्धवार फैलना ही चाहता है। उनम आगे है इरावती, उसक साथ सम्भवत दा नई शिक्षमाणा हैं। इरावती न पूछा-"तुम लोग कितनी दूर चनोगी? अच्छा हाता कि यही चक्रम पर बाहर का वायु सेवन कर लो।" ____ "आर्ये । जेसी आप आज्ञा द ।"-एक ने वहा । फिर तीनो धीरे-धीर टहलन लगी । शहसा इरावती न उन्हे सतर्क भाव मे देखते हुए कहा-"न-न-न ऐसे चलन से तुम्हारे मुगठित अगो का प्रदर्शन होता है। सिर नीचा कर, सिर झुकाकर हां, देखो मैं किस तरह चल रही हूं।" दूसरी जा अब तक न वाली थी, खडी होरर मुसक्याने लगी। इरावती ने पूछा-"इस तरह हंसने का अर्थ ?' ____ "भगिनी । हम नोग तुम्ह आर्या कह रही हैं, कदाचित् तुम इसीलिए अपन मुगठित अगा को देख नही पाती हो। वृद्धा समझने लगी हा जपने को न !' —उसने कहा, फिर भी स्मिति म कमी न थी। इरावती उसके हंसोडपन को जानती थी, किन्तु जैसे अपनी स्वचेतना खोती हुई वह बाला___ "यह लो, तुम्हारा मन अभी दुख की भावना से बहुत दूर है। इस क्षणभगुर शरीर पर सुख भावना । भला तुमवो धर्मलाभ कैस हागा तुम मरी हंसी उडाती हा । फिर मैं विनय की शिक्षा तुमका क्या द मकती है। इरावती पो मन्देह हुआ कोई व्यक्ति बकुल की अधकार-छाया में चला गया है । वह चुप हो रही, किन्तु साथ की दानो न उसे उकमा कर बुलवाना ही चाहा । एक न वहा-- तो आर्या | यही बैठकर कुछ बातचीत न करे - इतना कहती हुई वह ढिठाई स बैठ ही गई । और इरावती अभी दूसरी के भगिनी सवोधन पर मन-ही मन विरोध कर रही थी। प्रतिवाद करना विनय की रक्षा के लिए आवश्यक था। फिर उसने मन का रोका-नही, अभी लडकियां है–ता क्या वह सच ही भिक्षुणी हो गई है ? एक सीमा-वाला हो जाने के समीप से युक्ती होने का ४६२ . प्रसाद वाङ्मय