पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४८३

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जहाँ प्रारम्भ होता है-वही तक तो वह भी है । 'आर्या नही हो सकती, कहने के लिए चाहे जा कह लें। दूसरी ने उसके विचारा का विखराते हुए कहा-"क्या-आर्या | इतना शासन मनुष्यता के अनुकूल है ? शील और सयम की कही मीमा भी है ? ___ इरावती ने मन-ही-मन कहा-'नहो परन्तु प्राट म उमन कहा- क्यो नहीं, हमारे दुखा का अन्त नही, भावा स छुटकारा नही, फिर तो हम बुद्धि के आधार पर वीच म स मार्ग निकालना है। काम गुणा से बचकर मन का आकाक्षा की लहरा स दूर ले जाना होगा। जहां ये सब छू न सके। मैं समझ गई । जव अपन कर्मों का फल ही भोगना है, तव कर्म छाड देन के अतिरिक्त दूसरा उपाय नही ।' -पहली न व्यग से कहा। इरावती झझट म पड गई थी। वह तो फिर से सोचने गी थो- महा बाल का मन्दिर, नही उसके भी पहले वेत्रवती का किनारा, गहा वह माता का दाहकर्म करन क बाद अकेली शरद् की सध्या मे बैठी थी। और अग्निमिन आया हाँ, उसन कहा-"इरा। तुम व्याकुल न होना। मैं हूँ न । तुमको चिन्ता किस बात की। किन्तु फिर न जाने क्या हुआ, कुछ ही दिना में उसका आना-जाना बन्द हो गया। मुनने में आया कि वह घर से लडकर परदेश श्ला गया । और मैं निम्पाय वहां से चल पड़ी। मुझे अवलम्व था, इतना ही तो नही, उनकी आँखो से चुम्बक की-सी स्नेहमयी ज्वाला निकलती थी। वह विदिशा का कुलपुत्र था । और मै पय की भिखारिणी| महाकाल मन्दिर म फिर भट हुई। परन्तु । एक ने फिर टोक दिया। क्यो भगिनी । क्या माच रही हो ? बोती हुई बात । क्या उनमे मन का रहस्य है कुछ ? इरावती अपने को भूल-सी गई थी । उमन कहा- 'हाँ कुछ तो था ही। जैम जीवन का एक छाटा-सा मूत्र । ____ तो क्या अब उसी की प्रतिक्रिया हा रही है | तुम भी भगिनी भूल कर गई हो । जानबूझ कर भी अपने को नही पहचानना चाहती हो, प्राय यही तो मन करते है । मैं भी तुम भी, देखो न भीतर ही भीतर कितना खिल रही है। उमका स्वर हंसने का सा हा रहा था। किन्तु इरावती को काध आन नगा था। इन छोकडियो ने आज यह क्या कर डाला | उसने दृढता से कहा--. _ 'मैंने बलपूर्वक अपने हृदय स उन कोमन अनुभूतिया को निकाल दूगी। काम-मुखा की स्मृतिया को कडी-मे-कडी फटकार दूगी। प्रयत्न करूंगी । भगिनी ! तुम भी एसा ही करो। इरावती ४६३