पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४८४

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"हाँ, स्वामी !" "उस व्यक्ति का नाम तुम जानता हो, जिसक पास ताम्रपत्र है?" "नही, परन्तु वह अभी यही पर आया है।' “यही पर पाया है।" "हो, स्वामी !' "असा, यपिजल का वहाँ से जापर गाधर को मवा-पूजा म नियुक्त र दो, किन्तु सावधान ! एर यात भी उस मासूम न हो।" "अच्छा, स्वामी !' "और उसके यहां आने वा, वा उस दपने का भी भेद उसस कभी न रहना। जालो।" कालिन्दी ने आंचल के काने से वह धैली निराली और पुष्यमित्र क सामन रख दी । पुष्यमित्र ने उस रयते हुए कहा-"जितनी आवश्यकता हो, वहाँ मे आकर ले जाया करना । और देयो, जो लाग वहाँ जायें, उनम कहना कि राजकोप से अब सवा-पूजा रा प्रवन्ध हा गया है।' कालिन्दी प्रणाम करके चली गई। पुष्यमित्र ने एक बार फिर योजने वाली दृष्टि सेपक पर डाली। उससे पूछा--"कामन्दकी भी होगी।' "हाँ, स्वामी।" "उस बुलाआ।' लेखक फिर उसी मार्ग स भीतर जाकर एक भिक्षुणी वो लिवा लाया । भिक्षुणी ने कुछ स्मित में कहा-"वन्दे ।" पुष्यमित्र ने सिर हिला दिया । और पूछा-"वहो तो धर्म-महामात्र को स्थविर स कैसी पटती है " "इरावती को लकर झगडा चल रहा है । सम्राट् " 'कहो न ?" लेखर की ओर देख कर पुष्यमित्र ने कहा--"वह अन्तरग है । निर्भय होकर कहो।' ____"सम्राट् इरावती को रगशाला में देखना चाहते है। धर्म-महामात्र ने स्थविर से कहा कि किसी आपत्ति दोप से उसे सघ के बाहर कर दिया जाय । फिर तो उसे रगशाला म ले जाने में सुविधा होगी।" "किन्तु वह नहीं मानता?" "हां, परन्तु आज एक घटना हो गई है। भिक्षुणी-विहार के बाहर इरावती को मैंने अग्निमित्र नाम के एक युवक से बात करते हुए देखा है। कहिए तो स्थविर स इस कह दूं, फिर तो वह संघ स " ४६६ : प्रसाद वाङ्मय