पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४८५

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"क्या कहा, अग्निमिय" "हो, स्वामी।" "नहीं, तुम चुप रहो । दोनो का समाचार फिर मुझे देना । जाओ।" कामन्दकी चली गई। पुष्यमित्र ने सिर खुजलाते हुए लेखक से कहा'देवदास । मौर्य-साम्राज्य की अन्तरग नीति बडी जटिल होती जा रही है । मैं इसे । "स्वामी ! इसलिए तो दौवारिक, आन्तर्वेशिक, दडपाल और दुर्गपाल भी आपके अधीन कर दिए गए है। आपका यह नवीन पद वडा ही विकट है, किन्तु कुछ चिन्ता नही स्वामी । आपकी प्रजा सव का पार लगायेगी।' "तो भी कभी कभी ऐसा जान पडता है कि आँधो आने वाली है। "नही स्वामी । आ पहुँची समझिए। "ठीक कहते हो । अच्छा जाओ विश्राम करो ।'-लखक देवदास चला गया । पुष्यमित्र अकेले चिन्तित बैठे रहे । सेवक ने आकर पूछा-"कुमार आ गये हैं, उन्हे " “भेज दो, नही अभी ठहरो । देखो मधुकर आया है।" "वह तो कभी से आकर मुचकुन्द की छाया मे बैठा है।' "बुलाओ उस" सेवक जाकर मधुकर को लिवा लाया । उसने प्रणाम किया। महादण्डनायक कुछ अन्यमनस्क थे, देखा नहीं । अपने-आप कहने लगे-"इस मनुष्य का पता नहीं चलता कि क्या है। पतजलि | लोग उसे मुनि कहते है, तपस्वी है, विद्वान् है, और भी क्या नहीं है ? "स्वामी । वह सचमुच सिद्ध है और साथ ही निस्पृह भी है । 'मधुकर ने कहा। "मधुकर । तुम सत्य कह रहे हो ।' "हाँ, स्वामी । पैसा पुरुप पाखण्ड नही हो सकता । एक दिन आप भी चलिए।" "नही मधुकर । अभी उसकी और परीक्षा लो। फिर मैं कभी चलूंगा। जाओ, कुमार अग्निमित्र को बुला लाओ।" मधुकर चला गया। अग्निमित्र सामने आया, उदास और गम्भीर, जैसे विपाद से भरा हया। पुष्यमित्र ने पूछा--"तुम कहाँ रहे ?" "या ही घूमता रहा।" इरावती : ४६७