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“यो ही । कदाचित् भावी मेनानायक के लिए या ही घूमना लाभ कारक नही है । यह तुम जानते होगे।" "पिताजी क्षमा कीजिए । वरसा बन्दीग्रह में रहने के बाद घूम लेने की इच्छा स्वाभाविक ही है।' __“किन्तु एक नायक को साहसिक की तरह जहाँ कही चले जाना, जिम किसी का शव जलाना, भिक्षुणी-विहार के समीप चक्कर काटना आपत्ति से खाली नही ।'--पुष्यमित्र ने कुछ कर्कश स्वर स कहा । अग्निमित्र जैसे ठोकर लगन के ममान आहत होकर देखने लगा । वह हाँ भी नहीं कह सकता था, नही भी नही । उसका पिता क्या सर्वज्ञ है। अभी वह सोच ही रहा था कि पुष्यमित्र न कडक कर कहा--"लाओ वह ताम्रपत्र कहां है? "ताम्रपत्र । "हाँ, ताम्रपन । जिस पुजारी न तुमको दिया है। जानत हा, वह राजसम्पति है।" "अग्निमित्र को वह मिला है पिताजी। और इस नियम पर कि उसका रहस्य किसी का न बताया जाय ।' -दृढता से अग्निमित्र न कहा । "हाँ, तब ता ठीक है। "और मुनिए, मैं इस अत्याचारी मगध-सम्राट् का कोई भी कार्यभार अपने कधा पर नही उठाता । आप मुझे नायकत्व से छुट्टी दिला दीजिए । मैं अनुग्रह का भिखारी नहीं। वह तो मैं स्वय ही कहने जा रहा था । तुम अविश्वसनीय हो । तुम पर ऐसा गुरुभार देना, मूर्खता होगी। अच्छा, अब तुम मुक्त रहना चाहते हो, या बन्दीगृह मे?" "जैसी आपकी आज्ञा होगी।' "मैं पिता हूँ, इसीलिए तुम मुझ पर इतना अत्याचार कर रहे हो । नही तो " "जानता हूँ कि अब तक मैं कहाँ हाता, परन्तु जब एक अत्याचारी सम्राट का इतना समर्थन आन करते है, तब क्या एक पुन के लिए भी कुछ न करेंगे।" --अग्निमित्र भरा हुआ था । यह जानकर पुष्यमित्र ने उसे छेडा नही । पुष्यमित्र अभी भी मन-ही-मन कह रहा था कि अग्नि निरपराध है । वर्त्तव्य और स्नेह का युद्ध हा रहा था । महादण्डनायक ने क्षण भर रुककर कहा--"अच्छा तुम जैसे चाहो रहा, परन्तु मरी पद-मयादा का तुम्ह ध्यान रखना चाहिए । जाना विश्राम करा । अन्यथा मैं केवल तुम्हारा पिता ही नही, मगध का महादण्डनायक ४६८: प्रसाद वाङ्मय