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"अच्छा, बताओ तुम कौन हो?" "आप नही जानते ?" "जानना सहज नही, फिर ऐसी मायाचिनी का | कालिन्दी, तुमन मुझे यहाँ क्यो बुलाया, अपना अर्थ स्पष्ट कहो। मैं अधिक नही ठहर सकता।" हा देव । स्त्री का मुंह कुछ वाता के लिए बद रहता है, यह क्या आप नहीं जानते" "जानता हूँ, परन्तु वे तुम्हारी जैसी नही होतो। तुम छम-वंशधारिणी दासी हो या राजरानी हो, कह नही सकता । तिस पर भी तुम चाहे कुछ हो, मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ, यह तो तुम्ही को बताना हागा।" ____ "मेरी विपत्ति अभी तक नहीं समझ सके निप्छर । मैंन जिस दिन स गगा मन्दिर पर तुमको..।" "चुप रहो कालिन्दी, मैं स्त्रिया के प्रेम का रहस्य नहीं समझ पाया हूँ । जब वह चचल लास्य मन से मन को अथवा, जाने दो मैं प्रणय के स्वाध्याय म असफल विद्यार्थी है। दूसरी कोई बात हो तो कहा ।' ___अग्निमित्र, चौको मत । मैं तुम्हारा परिचय जान गई हूँ और मैं कालिन्दी हूँ, इसम सन्देह नही, परन्तु परिचारिका नही । मगध के विश्वविश्रुत नन्दराज का रक्त मेरी धमनियो म है । मैं कुमारी हूँ, समझा । मैं तुम्हारे प्रणय के उपयुक्त हूँ। भिक्षुणी इरावती से कही अधिक ।' अग्निमित्र ने उत्तेजित होकर उसके मुंह पर हाथ रख दिया--"चुप रहो।" "क्या उसका नाम भी न लूं। वाह | इतना पक्षपात ।' --फिर वह खिलखिला कर हंस पड़ी। अग्निमित्र असन्तुष्ट होकर खडा हो गया, किन्तु कालिन्दी भी साथ ही खडी होकर कहने लगी-"दखो अग्निमित्र । मै राजगृह की धर्मशाला की घटना सब जानती हूँ। तुमने जिस पथ पर चलना निश्चित किया है, वही तो मेरा भी है । फिर..." ___"अरे | तो क्या तुम्ही धमशाला के खंडहर मे उस भयावनो रात्रि के सन्नाटे को भग करती हुई रो रही थी।" "हो । मैं ही थी, जिसे बचान के लिए तुम वायु वेग स अपन अश्व पर दौडे हुए आये थे। फिर क्या हुआ वह ता सब तुम्हे विदित है।" अग्निमित्र उस रहस्यमयो का तीखी दृष्टि से देखता हुआ फिर बैठ गया । "हा, यह ठीक है । पहले कुछ खा-पी लो । तुम्हारा मन स्वस्थ हो जाय, तब हम लोग बाते करे।" यह कहकर उसन स्वादु पक्व मास और मधुर गधवालो मुरा सामने रख दी। चौकी समीप खिसका कर बाली-"कहिए ता मैं ४७४ : प्रसाद वाङ्मय