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'हा, मैं सावधान हूँ, प्राण हथेली पर लिये मैं किमी भी भविष्य की प्रतीक्षा महूँ । अग्निमिन । मैं फिर भी राजनन्दिनी हूँ। यह अभियान मरे मन म नही गया है | नन्द की निधि मेरी सम्पत्ति है । और होगी । किन्तु तुम न जान कहा से बीच में ना पडे । मैं स्त्री हैं । आह ! तुम अग्निमिन । अव तक जीवित न रहते । परन्तु मैं अपने हृदय से हारी है। मैं राजप्रेयसी । राजनन्दिनी । अनु ग्रह की क्षमता खो नही मकी हूँ ! अग्नि । लो मैं अपना बहुमुल्य प्रणय तुम्ह दान करती है।' कालिन्दी सचमुच निग्रह और जनुग्रह को क्षमता रखने वाली साम्राजी-मी दिखाई पडती थी। उसको पतली काया उस रल और आलोक की छाया में महिमा और गौरव से पूर्ण थी। वह सिंहनी थी। अग्निमित्र ने यह सब देखा फिर हंस कर कहा--"तो कालिन्दी । मुझे मोचने का अवसर न दोगो । क्या तुम मुयमे झूठा वाक्य चाहती हो । यह प्राण के भय स भी मैं नहीं कर सकूगा। मुझे सोच लेने दो, मैं प्रणय या अनुग्रह का भिखारी नही किन्तु हृदयहीन भी नही हूँ। विश्वास रक्खो मैं इसका उत्तर कल दूगा? कालिन्दी ने अपने को अपमानित समझा । उसके नेत्र आरक्तिम हा उठे। परन्तु रमणी के नेत्र | उनम अधिक ताप हाते ही जल विन्दु दिखाई पर । कृपाण फक कर वह गिरने की तरह शैया पर बैठ गई। अग्निमित्र को प्रमाद हुआ, उसन आज तक यह दृश्य नही देखा था। इरावती को शान्त शरद नदी के रूप म देखा था, जिसम मीठी हितकोर थी। किन्तु यह तटवृक्षा को बहाल जाने वाली उत्ताल तरगमयी कूलप्लाविनी वपा की वढो हुई महानदी उसने जीवन म आज ही देखी । आवर्त मे आ गया । उसन अपन कनुक क भीतर म ताम्रपत्र निकालकर कानिन्दी क समीप रख दिया, और कहा कालिन्दी । राजनन्दिनी । यह लो तुम्हारी निधि है, तब उसका ताम्रपत्र रखने की अधिकारिणी तुम्ही हो । और यह मेरा जीवन ता अब कमल-दल का विंद है । मैं रोगी नही हूँ, मरणासन भी नहीं। किन्तु किसी भी क्षण क्या होगा, वह नहा मवता । मैं भी तुम्हारी तरह बृहस्पतिमित्र का विराधी हैं। जाज इतना ही, फिर अभी ससार म कुछ और लेना-देना है, उस समयकर कल तुमने कडेगा। अर्थात् पिता ने ? 'नही, अपने मन में। कालिन्दी सहसा उठकर अग्निमित्र से लिपट गई । अग्निमित्र ने अनिन्छिन आलिंगन को प्रमाद ही समझा धारे-धारे उसन अपन को जलग किया। कालिन्दी ने पान दिया, और ताली बजात ही दासी उपस्थित हुई। इरावती ४७०