पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५००

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को दुखिया इरावती के लिए वह जैसे सुन्दर स्वप्न था। वह चली जा रही थी। ठीक उसी घटना के बाद, पाडे पर पता हुआ, उद्विग्न भाव स अग्निमित्र आकर यडा हुआ। उसका अपव सहसा रोक जान से, कुछ अधिक चचल होवर पृथ्वी कुरेदने लगा। वहाँ कोई दिखाई न पडा । द्वार बन्द था। घबराहट म अग्निमित्र को कोई उपाय न मूझता था। मूर्य कुछ तोय हा चले थे । अस्मात् द्वार खुला और भिक्षुणी दिखलाई पड़ी। अग्निमित्र ने पूछा-"क्या यहाँ इरा वती नाम की कोई भिक्षुणी है । पया मुझे बताइए ।' वह अभी ही इरावती वाली घटना दस चुकी थी । उसन जैम घृणा क कहा -"परन्तु अब नही है। "नही है " 'हो, विनय क नियमो का उल्लघन करन के कारण उस उघ से निकाल दिया गया है।' "आर्य ! क्या बता सकती हा वह वहां गई? "नहीं, वह इधर सामने चली जा रही थी। अभी अधिक विलम्ब तो नहीं हुआ" कहती हुई वह किसी काम से दूसरी ओर चली गई । प्रबल वेग से उसने घोडे को दोडाया। वह अनिश्चित रूप स इरावती की खोज मे घूम रहा था। शोण और गगा के किनारा की भी परिक्रमा लगा लेने पर उसे इरावती न मिली। अग्निमित्र उससे पूछ लेना चाहता था कि 'इरावती! तुम अपना हृदय न बदल सकोगी?' किन्तु वह मिली नही और अश्व धुरी तरह पसीने से लथपथ हो रहा था। इस अवस्था में जब वह एक स्थान पर आकर रुका तो देखा कि वह कुक्कुटाराम के भिक्षु-विहार के सामने खड़ा है। घोडे से उतर कर द्वार के समीप एक विस्तृत शिला पर विश्राम लेने के लिए बैठ गया। सामने सायकाल क मूर्य की पीली किरण गेरू से पुती हुई विहार की प्राचीर पर पड़ रही थी। कुक्कुटाराम का विस्तृत द्वार खुला था। अग्निमित्र के देखते-देखते पीली किरण लाल हो चली, अब उसने सोचा, "क्या करूं? महास्थविर स मिलकर पूछने पर कोई आपत्ति तो नही खडी होगी।' इतन में एक ध्यानमग्न भिक्षु नीचे सिर किये, सौभ्यमुद्रा स उसी के पास ले जान लगा। अग्निमित्र क्रोध से जल रहा था। उसने पूछा "क्या तुम इसी कुक्कुटाराम के स्थविर हो! -उसके स्वर में तनिक भी । नम्रता न थी। "उपासक | शान्त हो, इतना अविनय का प्रदर्शन क्यो? ५८२ प्रसाद वाङ्मय