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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५०६

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कुसुमपुर क नागरिको म भारी हलचल थी। प्रधानत धनी लोगा और उनस पोपित साधुओ का समूह व्याकुल था। राजा को धर्म-विजय का सभी लोग आदर की दृष्टि स देखते थे, अनुकरण भी करने थे। सघो के वाद-विवाद, उनके निमत्रणा को धूम पाटलिपुत्र की व्यावहारिक मर्यादा थी, किन्तु कुसुमकोमला, दार्शनिको की कुसुमपुरी दानो ओर मे आक्रान्त थी। फिर अपनी सुविधा, प्राण-रक्षा के लिए चिन्तित होना स्वाभाविक था, विशेषत इस ससार में निश्चिन्त, परलाक-विचाररत, मनुष्यो को। पश्चिम म जाना तो असम्भव था । उधर यवनो की सना थी। हां, पूर्व मे दक्षिणी मगध की पहाडियाँ सुरक्षित थी। प्राय लोग उधर ही भाग रहे थे। शोण से चौथाई योजन की दूरी पर पाटलिपुत्र के दक्षिण एक विशाल झील थी, जिसम शोण का एक सोता आकर मिल गया था। इसी त्रिभुज में अश्वारोही सना का शिविर था । सनापति का पद भी पुष्यमित्र को मिला था । उस दूरदर्शी सैनिक न, नगर के वाहर अश्वारोहिया का शिविर इसी उद्देश्य से रक्खा था कि समय आन पर अश्वारोही दानो ओर द्रुत गति से जा सकते थे। राजगृह का पथ तो उनके अधिकार में था ही, जल घट जाने स शोण सगम तक भी अश्वारोही सेना पहुँच सकती थी। उस झील में कमलो की भरमार थी। जल स्वच्छा था । नगर स एक पथ उसी के किनारे-किनारे दक्षिण चला गया था । सध्या समीप थी। शिविरश्रेणी म अभी तक दीपक नही जले थ । पथ से दा पधिक जा रहे थे । एक स्थूलकाय किन्तु नाटा था । दूसरा लम्बा-चौडा परन्तु सुकुमार था। दोनो थके थे, परन्तु माटे ने साहस बढाते हुए कहा -"अब तो वही कुसुमपुर है।" दूसरा उसके इस कहने पर तो वेठ ही गया । "हाँ जी, अब तो आ ही पहुँचे हैं, तनिक विश्राम कर लें।" ___"अरे नही चन्दन । सब परिश्रम नष्ट हो जायगा । इतन दिना का कियाधरा सब मिट्टी हो जायगा । अब क्या है ? थोडा-सा साहस और करो"--कहता हुआ वह दयनीय दृष्टि से उस देखने लगा। चन्दन ने अपने पैर उठा कर उसे दिखात हुए कहा-"देखते नही, पैरो के । ४५८. प्रसाद वाङ्मय