पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५०७

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छाले घरवाली की तरह गाल फुलाए है । न ! मैं तो इसी म से कमलगट्टे खा कर यही जल पी लूंगा। तुम मेरी चिन्ता छोडो सेठजी । जाआ अपने घर चले जाओ। तुम्हें यहां तक पहुंचा दिया । वस, वही सामने कुसुमपुर है । मैं शपथपूर्वक कहूंगा कि सेठ धनदत्त के साथ मुझे नित्य पतला यवागू मिलता रहा। कभी अजीर्ण नही हुआ। वरसो कभी रोगी नहीं हुआ। पथ्य, केवल पथ्य मिलता रहा । समझे आप !" "किन्तु इतना रत्न लेकर अकेले उतनी दूर जा कैसे सकूँगा भाई । जब तुम इतनी दूर आये तव थोडा और सही । ए वस।" __किन्तु चन्दन तो लम्बा हो गया। धनदत्त बडी दुश्चिन्ता में पडा। नगर सामने दिखलाई पड़ रहा है। किन्तु सध्या हो चली है। उसके पास रत्नो का ढेर ! कोई भी साथी नहीं । वह चन्दन पर चिढने लगा था, इतने दिन खिलायापिलाया, साथ रक्खा और यहाँ आकर फैल गया। उधर चन्दन सेठजी से जब गया था। नगर को ओर से एक युवक आता हुआ दिखाई पडा । धनदत्त ने उसे देखकर पूछा-"सुनो तो, तुम किधर जा रहे हो ?" "मैं...मैं...मैं" उसके मुंह से अधिक कुछ न निकल सका । श्रेष्ठी धनदत्त प्राचीन व्यापारी, देश-विदेश देखा-सुना था। उन्होने डॉट कर कहा-“मे...ये भेडो की तरह न करो। मैं पूछता हूँ, तुम किधर !" "पूछो मत ! महा उपद्रव ।" "अरे कुछ कहो भी।" "देखते नही उधर!" धनदत्त ने उसके सकेत की ओर चौक कर देखा-शिविरो की श्रेणी ! उसन पूछा--"यह सेना कैसी ?" "पाटलिपुत्र पर दोनो ओर से आक्रमण होने वाला है। इसी से मेरी स्वामिनी बाहर चली गई है।" "तो तुम बेकार हो ? मैं तुमको अपनी सेवा में नियुक्त कर लूंगा। चलो, मुझे मेरे घर पर पहुंचा दो।" ___"वाह ! यह अच्छी रही । मैं ता हिंसा से डर कर इतनी बडी अपनी स्वामिनी की निधि छोडकर चला आया । अब फिर चलं, मारकाट करने !" "निधि कहा ? कैसी ?" "अजी तुमने सार्थवाह धनदत्त का नाम कहाँ से सुना होगा? फिर पूरी कथा तुमको सुनाने बैलूं, इतना अवसर मुझे नहीं।" "तो धनदत्त ! हाँ, हाँ, मुझसे आन देश मे भेट हुई थी। मैं तो वही उनके इरावती : ४५६