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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/६७

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चाची के जाने पर मगल लौट आया। तारा और मगल दोना का हृदय उछल रहा था । साहस कर क तारा ने पूछा-कौन दिन ठीक हुआ? सिर झुकाते हुए मगल ने कहा-परसो।—फिर अपना कोट पहनत हुए वह उपवन के बाहर हो गया। तारा सोचने लगी—क्या सचमुच में एक बच्चे की मा हा चली हूँ। यदि एसा हुआ तो क्या होगा। मगल का प्रेम ऐसा ही रहेगा-~-वह सोचते-सोचते लेट गई । सामान विखरे रहे। परसो के आत विलम्ब न हुआ। घर म व्याह का समारोह था। सुभद्रा और चाची काम में लगी हुई थी। होम क लिए वदी बन चुकी थी। तारा का प्रसाधन हो रहा था, परन्तु मगलदेव स्नान करन हर की पैडी गया था। वह स्नान करके घाट पर आकर बैठ गया । घर लौटन की इच्छा नहीं हुई। वह सोचने लगा–तारा दुराचारिणी की सतान है, वह वेश्या क यहाँ रही, फिर मेरे साथ भाग आई, मुझसे अनुचित सबध हुआ और अब वह गभवती है। मै आज ब्याह करके कई कुकर्मों के कलुषित सतान का पिता कहलाऊँगा । मैं क्या करन जा रहा हूँ |-घडी भर वह इसी चिन्ता म निमग्न था । अन्त म इसी समय उसके ध्यान म एक ऐसी बात आ गई कि उसक सत्साहस ने उसका साथ छोड़ दिया। वह स्वय समाज की लान्छना सह सकता या परन्तु भावी सतान के प्रति समाज की कल्पित लाञ्छना और अत्याचार न उसे विचलित किया। वह जैसे एक भावी विप्लव के भय से ग्रस्त हो गया। भगोड के समान वह बड़े स्टेशन की ओर अग्रसर हुआ। उसने देखा, गाडी आया ही चाहती ह । उसक कोट की जेब में कुछ रुपये थे। पूछा-इस गाडी स वनारस पहुंच सकता हूँ? उत्तर मिला हो, लकसर म बदलकर, वहा दूसरी ट्रेन तैयार मिलगी। टिकट लकर वह दूर से हरियाली म निकलत हुए धुएं का चुपचाप देख रहा था, जो उडनवाले अजगर के समान आकाश पर चढ रहा था। उसके मस्तक म कोई बात जमती न थी। वह अपराधी के समान हरद्वार से भाग जाना चाहता था। गाडी आते ही उस पर चढ गया । गाडी छूट गई। इधर उपवन म मगलदेव क आने की प्रतीक्षा हो रही थी। ब्रह्मचारीजी और वेदस्वरूप तथा और दो सज्जन आये । कोई पूछता था—मगलदव जी कहाँ हैं ? कोई कहता-समय हो गया। कोई कहता-विलम्ब हो रहा है। परन्तु मगलदव कहाँ ? तारा का कलजा धक-धक करने लगा। वह न जाने किस अनागत भय से ककाल ३७