पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/६८

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डरन लगी। राने-रोन हो रही थी। परन्तु मगल म रोना न चाहिए-~-वह खुलकर न रा सकती थी। जो बुलाने गया, वही लौट आया । खोज हुई, पता न चला। सन्ध्या हा आई, पर मगल न लौटा । तारा अधीर होकर रोन लगी । ब्रह्मचारीजी मगल का भला-बुरा कहने लगे । अन्त म उन्होने यहाँ तक कह डाला कि यदि मुझे यह विदित होता कि मगल इतना भीरु है, तो मैं किसी दूसरे स यह सम्बन्ध करन का उद्योग करता । सुभद्रा तारा का एक आर ले जाकर सान्त्वना द रही थी। अवसर पाकर चाची न धीर स कहा-वह भाग न जाता तो क्या करता, तीन महीने का गर्भ वह अपने सिर पर ओढकर व्याह करता? ए? परमात्मन्, यह भी है | कहत हुए ब्रह्मचारीजी लम्बी डग बढात उपवन के बाहर चले गय । धीरे-धीरे सब चले गय । चाची न यथापरवश होकर सामान बटोरना आरम्भ किया और उसस छुट्टी पाकर तारा के पास जाकर बैठ गई। तारा सपना दख रही थी-झूले के पुल पर वह चल रहो है । भीषण पर्वतथेणी । ऊपर और नीच भयानक खड्ड । वह पेर मम्हाल कर चल रही है। मगलदव पुल के उस पार खडा बुला रहा है । नीचे वग स नदी बह रही है। वरफ के बादल घिर रहे है । अचानक विजली कडकी, पुल टूटा, तारा भयानक वग से नीचे गिर पड़ी। वह चिल्ला कर जग गई। दखा, तो चाची उसका सिर सहला रही है । वह चाची की गोद म सिर रखकर सिसकन लगी। ३८ प्रसाद वाडमय