पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

पहाड जैस दिन बीतते ही न थ । दुख को सब राते जाडे की रात स भी लम्बा बन जाती हैं । दुखिया तारा की अवस्था शोचनीय थी। मानसिक और आर्थिक चिन्ताआ से वह जर्जर हा गई । गर्भ के वढन से शरीर स भी कृश हा गई । मुख पीला हो चला । अव उसने उपवन म रहना छोड दिया। चाची क घर म जाकर रहन लगी । वही सहारा मिला । खर्च न चल सकने के कारण वह दा-चार दिन क वाद एक वस्तु बेचती। फिर रोकर दिन काटतो । चाची न भी उस अपन ढग पर छाड दिया । वही तारा टूटी चारपाई पर पडो कराहा करती। अंधेरा हा चला था । चाची अभी-अभी घूमकर वाहर स आयी था । तारा क पास आकर बैठ गई। पूछा-तारा कैसी हो? क्या बताऊँ चाची, कैसी हूँ। भगवान जानत है, केसी बीत रही है । यह सब तुम्हारी चाल स हुआ। सा तो ठीक कह रही हो। नही, बुरा न मानना । देखा यदि मुझे पहली ही तुम अपना हाल कह दती, ता मैं ऐमा उपाय कर दती कि यह सब विपत्ति ही न आने पाती । कौन उपाय चाची? वही जव दो महीने का था, उसका प्रबन्ध हा जाता । किसी का कानोकान खबर भी न हाती । फिर तुम और मगल एक बन रहत । पर क्या इसी लिए मगल भाग गया ? कदापि नहीं, उसक मन स मरा प्रेम हो चला गया। चाची, जो बिना किसी लोभ के मेरी इतना सहायता करता या, वह मुझे इस निस्सहाय अवस्था में इसलिए छोडकर कभी नहा जाता। इसम कोई दूसरा ही कारण है। होगा, पर तुम्ह यह दुख दखना न पडता और उसक चल जान पर भी एक यार मैंन तुमस सकत किया, पर तुम्हारी इच्छा न देखकर मैं कुछ न बाली। कमाल ३६