पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/७०

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नही तो अव तव माहनदास तुम्हारे पैरा पर नार रगडता। वह कई बार मुसस वह भी चुका है। वस करा चाची, मुझस एसी बात न वरा । यदि एमा ही करना होगा, ता में किसी कोठे पर जा बैठूगी, पर यह टट्टी की जाट म शिकार करना मैं नही जानती। -तारा न य गाते कुछ काध स रही। चाची या पारा चढ गया । उसन विगड पर कहा --दयो निगाडी मुझो वा बाते मुनाती है । बरम आप करे और आंख दिखाव दूसर का । तारा रोन लगी। वह उस गुराट चाचा स लडना न चाहती थी, परन्तु अभिप्राय न मधन पर चाची स्वय लड गई। वह माचती थी गिजर इसका सामान धीरे-धीरे ले ही लिया, दाल-गटी दिन म एक बार पिला दिया करती थी। जव इसक पास कुछ बचा ही नही और आग वा काई आशा भी न रही, तब इसका शझट क्या अपन सिर र । वह प्राध स वाली-रा मन रोड पही की। जा हट, अपना दूसरा उपाय दन । मैं सहायता भी करूं और बाते भी सुनें, यह नही हो सकता। पर मरी काठरो पाली कर दना, नही ता झाड, मारकर निकाल दूंगी। तारा चुपचाप रा रही थी, वह कुछ न वाली। रात हा चलो । ताग अपनअपने घरा म दिन भर के परिश्रम का आस्वाद लन के लिए ग्विाडे चन्द करन लगे, पर तारा की आंखे सुनी थी। उनम जब आमू भी न थे । उसकी छाती म मधु-विहीन मधुचक्र-सा एक नीरस क्लेजा था, जिसम वेदना की ममाझ्यिा की भन्नाहट थी। ससार उसको आँखा म घूम जाता था, वह देखत हुए भी कुछ न देखती थी। चाची अपनी कोठरी म जाकर पा-पो पर सा रही। बाहर कुत्ते भूक रह थ। रात आधी बीत रही थी। रह-रहकर निस्तब्धता का झाका आ जाता था। सहसा तारा उठ खडो हुई। उन्मादिनी क समान वह चल पड़ी। पटी धोती उसके अग पर लटक रही थी । लाल बिखर थ । वदन विवृत । भय का नाम नही । जैसे कोई यत्रचालित शव चल रहा है । वह सीधे जाह्नवी क तट पर पहुँची। ताराओ की परछाई गगा के वक्ष म घुल रही थी। स्रोत म हर-हर की ध्वनि हो रही थी। तारा एक शिलाखण्ड पर बैठ गई। वह कहने लगी-मरा जव कौन रहा, जिसके लिए मैं जीवित रहूँ। मगल ने मुझे निरपराध ही छोड दिया, पास म पाई नही, लाञ्छनापूर्ण जीवन, कही धधा करके पट पालने लायक भी न रही। फिर, इस जीवन को रखकर क्या करूं। हां, गर्भ मे कुछ है, वह ४० प्रसाद वाङ्मय