पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/७३

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फिर उस थपकियां देन लगी। शिशु निधडक सा गया। तारा उठी, अस्पताल स बाहर चली आई, पगली की तरह गगा को ओर चली । निस्तब्ध रजनी थी। पवन शात था। गा जैस सा रही थी। तारा न उसक अक में गिरकर उस चाका दिया। स्नेहमयी जननी क समान गगा न तारा का अपन वक्ष मल लिया। हद्धार की बस्ती स कई कास दूर गगा-तट पर बैठे हुए एक महात्मा अरुण को अर्घ द रह थे । मामन तारा का शरीर दिखलाई पडा, अजलि दकर तुरन्त महात्मा न जल म उतरकर उस परडा। तारा जावित थी। कुछ परिश्रम के बाद जल पट स निकला । धीर-धीर उस चेतना हुइ । उसन आख खालकर दखा कि एक झापडी म पडी है। तारा की जांखा स भी पानी निकलन लगा—वह मरने जाकर भी न मर सरी। मनुष्य की कठार करुणा का उसन धिक्कार दिया। परन्तु महात्मा की शुथूपा स वह कुछ ही दिना म स्वस्थ हो गई। अभागिनी न निश्चय किया कि गगा का किनारा न छाड़, गी-जहाँ यह भी जाकर विलीन हो जाती है, उस समुद्र म जिसका कूल-किनारा नही, वहा चनकर इवूगी, दयू कौन बचाता है । वह गगा के किनारे-किनार चनी । जगली फल गाँवा को भिक्षा, नदी का जल और वन्दराएं उसको यात्रा में सहायक थ । वह दिन-दिन आगे बढती जाती थी। ककात ४३