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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/७५

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पूण हृदय झुक जाता । उसकी अपराध से लदी हुई आत्मा अपनी मुक्ति के लिए दूसरा उपाय न दखती। बडे गर्व से निरजन लोगा को गृहस्थ बने रहन का उपदेश देता । उसकी वाणो और भी प्रखर हाने जाती। जब वह गार्हस्थ्य जीवन का समर्थन करने लगता, वह कहता कि 'भगवान् सबभूत हिते रत' हैं, ससारयात्रा---गार्हस्थ्य जीवन में ही भगवान् की सर्वभूतहित कामना के अनुसार हो सकती है। दुखियो की सहायता करना, सुखी लागो को देखकर प्रसन्न होना सबकी मगल-कामना करना, यह साकार उपासना के प्रवृत्ति-मार्ग क ही साध्य है। -इन काल्पनिक दार्शनिकताआ से उसे अपने लिए वडी आशा थी। वह धीरे-धीरे हृदय से विश्वास करने लगा कि साधु-जीवन अमगत है ढोग है। गृहस्थ होकर लोगो का अभाव-मोचन करना ही भगवान् की कृपा के लिए यथेष्ट है। प्रक्ट म ता नही, पर विजयचन्द्र पर पुत्र का-मा किशोगे पर स्त्री का-सा विचार रखने का उसे अभ्यास हो चला । किशोरी अपने पति को भूल-सी गई । जब रुपया का बीमा आता तव एसा भासता मानो उसका कोई मुनीम अमृतसर का कार वार देखत्ता हो और उस कोठी से लाभ का अश भेजा करता हा । घर के काम-काज मे वह बडी चतुर थी। अमृतसर के आय हुए सब रुपये उसके वचते थ। उसस वरावर स्थावर सम्पत्ति खरीदी जाने लगी। किशारी को किसी बात की कमी न रह गई। विजयचद्र स्कूल म वड ठाट स पढने जाता था। स्कूल के मिश्रा की कमी न थी। वह आये दिन अपन मिना का निमत्रण देकर वुनाता था। स्कूल में उसकी बडी धाक थी। विद्यालय के सामने शस्य स्यामल समतल भूमि पर छात्रा का युण्ड इधर उधर घूम रहा था ! दस वजन म कुछ विनम्ब था। शीतकाल की धूप छोडकर क्लास के कमरा मे घुसने के लिए अभी विद्यार्थी प्रस्तुत न थे। विजय हो ता है--एक न कहा । घाडा उसक वश म नही है, अब गिरा ही चाहता है। दूसरे न कहा । पवन स विजय के बाल विखर रहे थे, उसका मुख भय से विवण था । उसे अपने गिर जान की निश्चित आशका थी। सहसा एक युवक दौडता हुआ आगे वढा-बडी तत्परता से घोडे की लगाम पकड कर उसके नथुने पर उसन सबल घूसा मारा और दूसरे क्षण वह उच्छ्ह ल अश्व सीधा होकर खड़ा हो गया । विजय का हाथ पकडकर उसन धीरे स उतार लिया। अब तो और भी कई लडके एकत्र हो गये। युवक का हाय पकडे हुए विजय उसके होस्टल की आर चला। यह एक सिनेमा का सा दृश्य था । युवक की प्रशसा म तालियां वजन लगी। ककाल ४५