पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/११३

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(राज्यश्री उठकर टहलती है-प्रतिहारी का प्रवेश) प्रतिहारी-“मन्त्री महाशय ! अनर्थ ! घोर अनर्थ !" मंत्री-"क्या हुआ ? कुछ कहो भी।" प्रतिहारी-"उन प्रजाओं के साथ दुर्ग में सहस्रों शत्रु घुस आये। वे सब शत्रु ही थे जो इस तरह का राष्ट्र विप्लव करके अपना कार्य साधन कर चुके ।" मंत्री-"घोर अनर्थ ! कोटपाल कहाँ है ?" (सैनिक का प्रवेश) सैनिक--"कोटपाल, मैन्य संग्रह करके युद्ध कर रहे है, और आपसे मुझे कहने को भेजा है कि, इस युद्ध का नेता वही छली हे जो जवहरी बन कर महाराज के हाथ कुछ रत्न बेच गया था।" मन्त्री-"जाओ रणभूमि में जाकर अपना कर-कौशल दिखाओ। (सैनिक का प्रस्थान । विमला से) विमला ! महारानी का यहाँ रहना ठीक नही (राज्यश्री की ओर देखकर) हे परमेश्वर ! यह कैसा उन्माद ?" राज्यश्री-“मन्त्री, उसने हम दिया । तुम भी हँसो।" (नेपथ्य में रण कोलाहल) मन्त्री-“महारानी ! शत्रु दुर्ग मे घुस आये ।" राज्यश्री -"जाओ उन्हे लिवा लाओ।" (मन्त्री की तलवार ले लेती है-देवगुप्त का विजयी सैनिकों के साथ प्रवेश-राज्यश्री का खड्ग चलाना । देवगुप्त का उसे छीन लेना) [पटाक्षेप] द्वितीय अङ्क प्रथम दृश्य (कानन-विकट घोष) विकटघोष-(स्वगत) मैं संसार से अलग किया गया था, किसलिये ? केवल स्वार्थमाधन के लिये। पिता ने मुझे भिक्षु संघ मे समर्पण कर दिग था क्यों ? इसलिये कि मैं धार्मिक जीवन व्यतीत करूँ। पाषाण हृदय मे मेरे लिये दया या सहानुभूति नही थी। हाय ! हृदय के कानन की आशालता जब बलवती हुई, तो मैं क्या देखता हूँ कि कर्मक्षेत्र मे मेरे लिये कुछ हुई नही है । केवल शून्य चिन्तन । नही, राज्यश्री : ९७ ७