पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/११५

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द्वितीय दृश्य (पटमण्डप में राज्यवर्धन, नरेन्द्रगुप्त, भण्डि और स्कन्दगुप्त) नरेन्द्रगुप्त-"दुष्ट देवगुप्त ने कैसे कुसमय मे यह उत्पात मचाया, जब एक ओर आप दोनों भाई पितृ शोक मे व्याकुल थे तब नराधम ने एक और नारकीय अभिनय किया। अच्छा शान्ति से आप अग्रसर हों, धैर्य आपका सहायक हो । राज्यवर्धन-“गौड़ेश्वर ! शान्ति ! कहाँ शान्ति है "इस जीवन का दृश्य अनूठा भाव भरा है, हृदय कमल भी नित्य न रहता रंग भरा है। चिन्ता कीट प्रवेश कभी करता है इसमें, शान्ति मरस मकरन्द सदा रहता है किसमे ?" शान्ति, नही; शीघ्रता मे इन अपने प्रचण्ड वैरियो से बदला लेना ही हमारे जीवन का प्रधान कार्य है "अपनी भुजा से ले लिया जिसने नही प्रतिशोध को, सन्तोष देता चित्त को करना न शत्रु विरोध को। जो अग्नि सम जलता नही है शत्रु-मुख के वायु से, उस कीट को कुछ भी नही है कार्य निज परमायु से भण्डि-"महाराज शान्त हो। उम नरबम देवगुप्त को कल उचित से भी बढ़कर दण्ड दिया जायगा।" नरेन्द्रगुप्त-"हम लोगों को ऐमा ही उद्योग करना चाहिए।" दौवारिक-(प्रवेश करके) महाराज की जय हो। एक मनुष्य श्रीचरणों का दर्शन किया चाहता है । राज्यवर्धन-"आने दो।" (दौवारिक का प्रस्थान-विकट घोष के साथ पुनः प्रवेश) विकटघोप-(प्रणाम करके) महाराज की कृपा से मेरा मनोरथ पूर्ण हो । स्कन्दगुप्त-"तुम्हारी क्या अभिलाषा है ?" विकटघोष-"महाराज के आश्रय में अपने चिर शत्रु देवगुप्त से प्रतिशोध लेना ही मेरा अभीष्ट है मेरे हृदय का रत्न उसने छीन लिया है।" भण्डि -"तुम्हारे ऊपर विश्वास........" विकटघोष - "क्या महाराज राज्यवर्धः पेरे इन्ही दो हाथो से डरते हैं। क्या तनी बड़ी सेना को मैं अकेले वंचित कर सकता हूँ?" स्कन्दगुप्त --"किन्तु......." राज्यश्री : ९९