पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/११६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विकटघोष-"किन्तु कौन जन्तु है, मैं नहीं जानता। बीरों के पास खड्ग से बढ़कर दूसरा प्रमाण नहीं।" राज्यवर्धन-"ठहरो ! तुम्हारा नाम क्या है ?" बिकटघोष-"बीरसेन।" नरेन्द्रगुप्त-"भला तुम क्या करोगे ?" विकटघोष--"मुझे कन्नौज दुर्ग के गुप्तमार्ग मालूम हैं उनके द्वारा सुगमता से आपको विजय मिल सकती है। यदि मेरे वहाँ आने जाने में महाराज को कुछ शंका हो तो मैं एक सामान्य सैनिक की तरह सेना मे रहकर शस्त्र कौशल दिखाऊँगा।" (राज्यवर्धन नरेन्द्र गुप्त को इंगित करते है) नरेन्द्रगुप्त-"अच्छा वीरसेन तुमने यदि सेना में रहकर उसे किसी प्रकार की सहायता पहुंचाई तो तम्हे उचित पुरस्कार मिलेगा।" (पट-परिवर्तन) तृतीय दृश्य (दुर्ग पथ-अमला और विमला) अमला-"हाय ! ईश्वर ! की क्या इच्छा है ? महाराज स्वर्गवासी हुए, दुर्ग पर बरी का अधिकार हुआ महारानी की यह अवस्था । देखे यह चाण्डाल देवगुप्त अभी और क्या करता है।" विमला-"मखी ! उमका ध्यान महारानी की ओर कुछ अच्छा नहीं है। वह बड़ा ही नीच है, उसकी चिकनी चुपड़ी बातों से मैं भलीभांति समझ गई हैं कि वह महारानी के रूप में मुग्ध है। अमला-"भला, यह तू कैसी बात कहती है ?" विमला-"इतना, भी नहीं समझती: यदि वह रूप में न मुग्ध होता तो अभी तक महारानी को महल में रहने देता ? कभी कारागार में न भेजता?" अमला-किन्तु वह तो बड़ी सभ्यता दिखाता है, महारानी के स्वास्थ्य का बहुत ध्यान रखता है। विमला-सखी ये सब उसके बनावटी भाव है। दुष्ट जब आता है तब एक नये ढंग से । यही तो अच्छा हुआ कि जब वह आया तब महारानी को मूच्छिता पाया। अमला-"क्योंरी, महारानी का अब क्या उपाय है ?" विमला-"इस समय तो उनकी मूर्छा ही औषधि है - १००. प्रमाद वाङ्मय