पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/११७

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"जिस हृदय जर्जर, विटपि ने झोंका प्रभज्जन का सही, संसार की दुर्व्याधियों से जो सदा रोगी रहा। निद्रित पड़े रहना उमे विस्मृति धरा पर शान्त हो, एकान्त औषधि है, नहीं वह दुःख से फिर क्लान्त हो । अमला-"ठीक है सखि !" विमला-"अब तू कहां जाती है ?" अमला--"महारानी के पास ।" विमला-"मैं भी तो वहीं चलना चाहती हूं।" अमला-"तो फिर चल, देखें अव महरानी की कैसी अवस्था है । वैद्य तो बड़ा परिश्रम कर रहा है । ईश्वर उसको सफलता दें।" (दोनों जाती हैं) (पट परिवर्तन) चतुर्थ दृश्य (महल । राज्यश्री बैठी हुई) विमला-(प्रवेश करके) “महारानी अब कैसी है, कमला !" (राज्यश्री उठ खड़ी होती है)। राज्यश्री-'सखी! महारानी किसे कह रही हो। हाय ! मुझे चेतना क्यों हुई ? मैं भूल गई थी। सारी वेदनायें. मब अत्याचार, संसार के जितने कप्ट इस क्षुद्र जीवन पर आये; उन्हे इस अचेतना ने भुला दिया था। पर अब तो ते ही वेदनाये रोम की तरह अंग में खड़ी होकर हृदय में कांटे सी चुभ रही है। सचियो ! तुम लोगों ने मुझे औषधि के साथ विष क्यों नही खिलाया। हाय ! स्नेह ने तुम्हे उपकार और अपकार नही समझने दिया। हे करुणा सिन्धु, यह कैसी करुणा ! प्रभो !" अमला -' महारानी धैर्य धारण कीजिये।" विमला- "शान्त होइये।" कमला-"ईश्वर पर विश्वास रखिये।" राज्यश्री- विश्वास करने को अहो प्रत्येक श्वास बता रहा, प्रभु में प्रतीति विशुद्ध प्राण रगति युक्त जता रहा। पर आर्त्तवाणी स्थान रखती है नहीं उस स्थान में, क्या यह गिरा ही पलट आती है, न पहुँची कान में ? राज्यश्री: १०१