पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/११९

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विकटघोष --"चुप रहो ! मुझे अवकाश नहीं कि मैं विशेष ठहरूं । मधुकर-"हाँ हाँ आप शीघ्र चले जाइये...। विकटघोष-"फिर बोले जाता है, इस पत्र को देवगुप्त को दे देना और कहना कि "वह तुम से फिर मिलेंगे"। मधुकर-"बहुत अच्छा मै दे दूंगा। आप तो जाते है न ?" विकटघोप-"क्या बडबडा रहा है, चुप रह । मधुकर-"मुझे दुख है कि आप विशेष नही ठहर सकते।" विकटघोष--"मैं जाता हूँ, पत्र दे देना. नही तो। (विकटघोष का प्रस्थान) (देवगुप्त का प्रवेश) मधुकर-(पत्र देकर) लीजिये, आपके एक पुराने मित्र ने दिया है।" देवगुप्त-(पत्र लेकर) "कौन मित्र । वह क्यों आया था ?" मधुकर- "चपत लगाने।" देवगुप्त-"कैमा था ?" मधकर-"जैमी आपकी बुद्धि ।" देवगुप्त--"क्या कहा उमने ?" मधुकर -"यह वात, इस पत्र मे पछिये ।" देवगुप्त--(पत्र पढ़ता है) 'श्रीयुत् इत्यादि में आपको मावधान पिये देता हूँ कि राज्यवर्धन पी गेना आप पर जात्राम ग किया ही चाहती है। आप तो किमी प्रकार बच भी सकते है किन्तु राज्यश्री को आप नही बना सकते अग्नु यदि राज्यश्री को लेने की इच्छा हो तो उन्हे मेरे यहाँ भेज दीजिये। जब आप चाहेंगे मिल जायगी । इस युद्ध मे आपकी रक्षा नही है। आप जो उचित समझे करें।" विकट घोष देवगुप्त--"वाह. यह तो कोई अच्छा पण्डित है जो दंवगुप्त को भी पढ़ाना चाहना है । मधुकर ! चरो को सेना का वृत्तान्त लेने के लिये भेज दो। देखे इसकी बात कहाँ तक ठीक है।" (जाता है। पटपरिवर्तन) षष्ठम दृश्य (बन्दिनी राज्यश्री-प्रहरी) नरदत्त --"अहा ! देखो यही रा. श्री है जिसके पाणिपीडन के लिये सैकड़ों राजकुमार प्रार्थी थे किन्तु ग्रहवर्मा का ही मनोरथ पूर्ण हुआ। इसे उनका दुर्भाग्य कहें राज्यश्री : १०३