या सौभाग्य । कौन कह सकता है कि जितने बहुत बड़े होते हैं उतने ही वे बहुत बड़े धूर्ताधिराज होते हैं ? हे देव, यह तेरी विचित्र लीला हैं, जिनके रहस्यों के सुनने से रोम कूप स्वेद जल से भर उठेजिनके पाप का कटोरा भरा हुआ छलक रहा है, वे ही समाज के नेता है ? जिनके सर्वस्व हरणकारी करों से कितनों की पूर्णाहुती हो चुकी है वे ही मान्य महाजन हैं ? जिनके दण्डनीय कार्यों का पुरस्कार निर्धारण करने में परमात्मा को भी ममय लगे, वे ही दूसरों के दण्डविधायक है ? सरल मनुष्यों का समूह जिनके हाथों का खिलौना है वे ही कुटिल नरपिशाच चतुर समझे जाते हैं? यदि किसी छोटे आदमी का यह सब काम होता जो कि महाराज देवगुप्त कर रहे हैं तो वह चोर, लम्पट, धूर्त, इत्यादि उपाधियों से विभूषित होता पर, उन्हें कौन कह सक 1 है ? अहा संसार तू धन्य है (राज्यश्री को देखकर) अहा ! कैसी देवी का सा स्वरूप है । देखते ही श्रद्धा होती है।" (चार प्रहरियों का प्रवेश) नरदत्त-"क्यों जी तुम लोग इतनी देर तक कहाँ रहे ? बड़ी देर किया।" १ -"आपको क्या अभी तक कुछ नही मालूम है । इतना बखेड़ा फैला है।" नरदत्त-क्या ! कुछ सुनें भी, हम तो यही थे।" २-"राज्यवर्धन की चढ़ाई हुई है। लड़ाई आरम्भ हुआ ही चाहती है। महाराज बड़े संकट में है।" नरदत्त-"तब तो महाराज गीघ्र लड़ाई पर जायँगे ?" ३-"जायंगें कहां ! दुर्ग के द्वार पर सेना आ गई है। (नेपथ्य में रणवाद्य कोलाहल) नरदत्त-अच्छा तुम लोग यही रहो, मैं जाकर देख आऊं क्या हो रहा है । (प्रस्थान) ४-"भाई अब तो मामने की लड़ाई है ?" १. --"क्या कहें यह न मालूम कहाँ की नुडैल हम लोगों के पीछे लगी है, नहीं तो नौदो ग्यारह होने में कौन देर थी। (राज्यश्री, कोलाहल से चैतन्य होकर) राज्यश्री - "क्यो जी लड़ाई का मा यह कैमा शब्द सुनाई दे रहा है ?" २-"धवड़ाती क्यों हो? कितनों को मार कर तब तुम मरोगी।" राज्यश्री-"मुखी मनुप्यो ! तुम मरने को इतना डरने हो । किन्तु किसी दुःखी हृदय से पूछो कि वह उमे कितना चाहता हैं ? अम्त होते हा. तेजहीन, अभिमानी भास्कर को वह गिरने के लिये कितनी शीघ्रता करता है। पतंग से निराश प्रेमी से १०४ : प्रसाद वाङ्मय
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१२०
दिखावट