पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सिंहनाद--"महाराज ! केवल सौराष्ट्र और अवन्ती तथा बंगप्रदेश ही तो इस आर्यावर्त भर में आपकी सीमा के बाहर है, तो भी अवन्ती का देवगुप्त आपके बन्दीगृह में है। कान्यकुब्ज आपही का है। सौराष्ट्र मे विजयवाहिनी प्रेरित हो चुकी है। बंग का राजा आपके सेनापति द्वारा मारा ही गया। आाको व्यर्थ शोक न करके इन क्षुद्र शत्रुओं को उचित दण्ड देना ही चाहिये आपके भुजवल से और भगवान की कृपा सब कुछ होगा।" (दौवारिक का प्रवेश) दौवारिक -"धर्मावतार ! कान्यकुब्ज से दूत आया है। सेनापति का सन्देश लाया है। हर्षवर्धन -"आने दो।" (दूत का प्रवेश-प्रणाम करता है) दूत-“हे देव, अरिन्दम आपको विजय दे। हर्षवर्धन-"दूत ! कान्यकुब्ज का क्या समाचार है ?" दूत-"देव ! पहले जो आपके श्री चरणो मे दुखद समाचार पत्रवाहक द्वारा सेनापति ने भेजा था वह सत्य है। और नरेन्द्रगुप्त का लगाव महाराज राज्यवर्धन की हत्या से सही था। इसका प्रमाण भी मिल गया, उसी के एक अनुबर ने भरी सभा में यह कथा सुनाई। और कहा कि नरेन्द्रगुप्त की यह इच्छा थी कि कान्यकुब्ज का राज, गौड़राज्य में मिला लिया जाय । इसी कारण मिलकर उसने महाराज राज्यवर्द्धन की हत्या की। स्कन्दगुप्त ने तो पहले ही उसका सिर क्रोध मे आकर काट डाला। और उन्हे पहले ही में इस बात का निश्चय था। पीछे साफ यह बात प्रकट हो गई कि नरेन्द्र ही हत्यकारी था।" हर्षवर्धन '-"तब तब।". दूत-"तब सेनापति भण्डि ने उसकी सेना को, जो शरण आये छोड़ दिया। कुछ को बन्दी कर लिया और कितनों को जो नौकरी करना चाहते थे अपनी सेना मे रख लिया। फिर कान्यकुब्ज को स्कन्दगुप्त की रखवाली मे छोडार गौड़ देश पर चढाई की है । और आप से निवेदन करने के लिये मुझे भेजा है। अपराध के लिये क्षमा मांगी है, और यह विनयपत्र भी श्रीचरणो में दिया है।" (पत्र देता है) हर्षवर्धन-(पत्र पढ़कर) “अच्छा किया। दूत ! तुम्हें आज्ञापत्र भी मिलेगा उसे तुम स्कन्दगुप्त को देकर भण्डि के पास चले जाना और उनसे कहना कि "महाराज तुम पर प्रसन्न है । बीती वातों का सोच न करके स्वामी के कार्य में दत्त चित्त रहना । कहना--महागज तुम्हारी मगल कामना करते हैं (माधव से) पत्र देकर आज ही दूत को भेज देना।" ११. प्रसाद वाङ्मय