पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१५०

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विकटघोष-मुझे कान्यकुब्ज-दुर्ग के गुप्त मार्ग विदित है, उनके द्वारा सुगमती से आपको विजय मिल सकती है। भण्डि-(कुछ विचार कर)-तुम मुझे तो कोई हानि नही पहुंचा सकते । अस्तु, तुम पंचनद गुल्म में सम्मिलित किये गए। (पूर्व सैनिक से)- गौल्मिक ! इन्हे ले जाओ। [सब जाते हैं/दृश्यान्तर] जब आप तृतीय दृश्य [शिविर] [राज्यवर्द्धन, नरेन्द्रगुप्त और भण्डि] नरेन्द्रगुप्त-दुरात्मा देवगुप्त ने कैसे कुममय मे यह उत्पात मचाया दोनों भाई पिता के शोक मे व्याकुल थे, तभी उसे नारकीय अभिनय करने का अवसर मिला ! अच्छा, धैर्य और शान्ति मे अग्रमर होकर".. राज्यवर्द्धन-शान्ति कहां, गौडेश्वर ! अपने इन दुवृत्त वैरियो से बदला लेना और तुरन्त दण्ड देना मेरे जीवन का प्रथम कार्य है। अपने बाहुबल से प्रतिशोध न लेकर चित्त को सन्तोष देना मेरा काम नही। नरेन्द्रगुप्त-ऐमा ही होगा। राज्यवर्द्धन-होगा नही, हुआ समझो। गज्यवर्द्धन वह राख का ढेर नही, जो शत्रु-मुख के पवन मे धधक न उठे। यह ज्वाला है, उत्तरापथ को जलाकर शान्त होगी। गौडेश्वर, तुम तो वर्द्धनो के बन्धु हो, परन्तु यह तुमसे न छिपा होगा कि स्थाण्वीश्वर की उन्नति अनेक नरेशो वी आँखो मे खटक रही है। अभी पंचनद से हूणों को विताडित किया और जालन्धर मे उदितगज को स्कन्धावार मे छोड आया, परन्तु मै देखता हूं कि हूणो से पहले अपने घर मे ही युद्ध करना पडेगा। भण्डि-देव उसके लिये चिन्ता क्या । हमारा शस्त्र-बल उचित दण्ड देने मे कभी पीछे न रहेगा। महोदय और मगध तो हम लोगो के मित्र ही है-पश्चिमी आर्यावर्त मे ही तो मंघर्ष है। नरेन्द्रगुप्त-कुछ चिन्ता न कीजिये- गौड़ और मगध की समस्त शक्ति आपके लिये प्रस्तुत है। राज्यवर्द्धन -भण्डि, महोदय-दुर्ग लेने का क्या उपाय निश्चित क्यिा है ? करने की तो मेरी इच्छा नही, और अवरोध में भी अधिक दिन बिताना ठीक नही। भण्डि -उमके लिये चिन्ता न कीजिये देव, सब ययाममय आप देखेंगे। विधाम कीजिये। ध्यम १३४: प्रसाद वाङ्मय