पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१५१

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[दूत का प्रवेश दूत-जप हो, देव ! राज्यवर्द्धन-क्या समाचार है ? दूत-दुर्ग के भीतर बहुत थोडी सेना है और देवी राज्यश्री भी वही हैं । राज्यवर्द्धन-मैं अभी आक्रमण करना चाहता हूँ। भण्डि-विश्राम कीजिये। आज भर केवल ! कल ही आप देखेंगे कि विजय- लक्ष्मी आपका स्वागत करती है। राज्यवर्द्धन-ऐसा ही हो, भण्डि | [दृश्यान्तर] चतुर्थ दृश्य [दुर्ग के भीतर एक प्रकोष्ठ में राज्यश्री और विमला] विमला-सिर की वेदना तो अब कम है न महादवी ! राज्यश्री-वेदना रोम-रोम मे खडी है, विमला | चेतना ने तो भूली हुई यातनाओं, अत्याचार और दम छोटे-से जीवन पर संसार के दिये हुए कष्टो को फिर से सजीव कर दिया है। सवी ! औषधि न देकर यदि तू विष देती, तो कितना उपकार करती। विमला- भगवान् पर विश्वास रखिये। राज्यश्री--विश्वास | सम्वी, विश्वास तो मेरा प्रत्येक श्वांस कर रहा है ! मै तो समझती हूँ कि मेरी प्रार्थना -मेरी आर्त्तवाणी -उन कानो मे पहुँचती ही नहीं है। विमला-गर्व से भरे मनुष्यो का ही यह स्वभाव है-जिा' कान मोतियों के कुण्डल से बाहर लदे है और प्रशसा एव सगीत की झनकारो से भीतर भी भरे है, वे ही क्रन्दन नही सुनना चाहते । राज्यश्री जैसी उनकी इच्छा । तो क्या सर्वत्र शत्रु का अधिकार हो गया है ? विमला-दुर्देव ने सब करा दिया। [देवगुप्त का प्रवेश राज्यश्री-यह कौन ! देवगुप्त-मै हूँ देवगुप्त । राज्यश्री ! तुम्हे स्वस्थ देखकर मैं प्रसन्न हुआ। विमला-अधखिली वसंत की कली को जलती हुई धूल मे गिरा कर भीषण अंधड चिल्ला कर कहता है--'तुम स्वस्थ हो !' शांत सरोवर की कुमुदिनी को पैरों से कुचल कर उन्मत्त गज, उसे सहलाना चाहता है ! राज्यश्री : १३५