पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१५२

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देवगुप्त - राज्यश्री ! अपनी इन दासियों को मना करो। मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ। राज्यश्री-तुम देवगुप्त ? मुझसे बात करने के अधिकारी नहीं हो-मैं तुम्हारी दासी नही हूँ , एक निर्लज्ज प्रवंचक का इतना साहस ! देवगुप्त-सुन्दरी ! राज्यश्री -बस मैं सचेत हूँ देवगुप्त ! मुझे अपने प्राणों पर अधिकार है । मैं तुम्हारा वध न कर सकी, तो क्या अपना प्राण भी नही दे सकती ? देवगुप्त-तब तुम इस-राज-मन्दिर को बन्दीगृह बनाना चाहती हो ? राज्यश्री-नरक मे रहना हो सो भी अच्छा ! देवगुप्त-तब यही हो (ताली बजाता है-चार सैनिकों का प्रवेश) देखो आज से ये लोग बन्दी है- सावधान ! इनके साथ वही व्यवहार करना होगा। (प्रस्थान) [दृश्यान्तर] पंचम दृश्य [प्रकोष्ठ में मधुकर-रात्रि] मधुकर-देखें अब क्या होता है ? [विकटघोष पीछे से आकर चपत लगाता है | मधुकर-(सिर सहलाता हुआ) --क्या यही होना था ? भाई तुम हो कौन ? मुझसे तुमसे कब का परिचय है ? -यह परिचय कैसा? विकटघोष—यह तुम नहीं जानते-हम तुम माथ ही न वहां पढ़ते थे ! तुम एक चपत लगाकर गुरुकुल छोड़कर भाग आये और राजसहचर बनकर आनन्द करने लगे। यह उमी का प्रतिशोध है । स्मरण हुआ ? मेरा नाम है विकटघोष ! मधुकर--(विचारने की मुद्रा में)--होगा ! होगा भाई, वह तो पाठशाला का लड़कपन था; अब हम तुम दोनो बड़े हो गये। फिर, वैमी बात न होनी चाहिये। विकटघोष- यह सब तो मित्रता में चलता ही रहता है; पर तुमने मुझे पहचाना ठीक ! मधुकर-ठीक ! क्या नाम ? विकटघोष-विकटघोष । मधुकर-ओह ! तव आप शंख-घोष करते। यह मेरी रोएँदार खंजड़ी क्यों बजा रहे थे ? आप इतनी रात को अतिथि ! विकटघोष-मैं शीघ्र जाऊँगा। १३६ : प्रसाद वाङ्मय