पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१५४

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छठवॉ दृश्य [उपवन में सुरमा और देवगुप्त] देवगुप्त-आज सुरमा ! अच्छी तरह पिला दो। कल तो मुझे भयानक युद्ध के लिये प्रस्तुत होना है । तुम कितनी सुन्दर हो सुरमा ! सुरमा-कितनी मादकता इस प्रशंसा मे है, प्रियतम ! मुझे अपना स्वरूप विस्मृत होता जा रहा है । मेरा यह मौभाग्य.....! देवगुप्त-सुरमा ! मेरे जीवन मे ऐसा उन्मादकारी अवसर कभी न आया था। तुम यौवन, स्वास्थ्य और सौन्दर्य की छलकती हुई प्याली हो -पागल न होना ही आश्चर्य है, मेरे इस साहस की विजय-लक्ष्मी ! सुरमा-(इधर-उधर देखती हुई)-कहाँ हूँ ? यह उज्ज्वल भविष्य कहाँ छिपा था? और यह सुन्दर वर्तमान, इन्द्रजाल तो नही ? (देवगुप्त का हाथ पकड़ कर) क्या यह सत्य है ? [पान-पात्र भरकर देती है] देवगुप्त -उतना ही सत्य है, जितना मेरा कान्यकुब्ज के सिंहासन पर अधिकार । सुरमा ! शका न करो। दो-एक पात्र । देवगुप्त-(पीता हुआ) यह देखो सुरमा ! नक्षत्र के फल आकाश बरसा रहा है. उधर देखो चन्द्रमा की स्निग्ध प्रसन्न हंसी तुम्हारा मनुहार कर रही है, जीवन की यह निराली रात है ! सुरमा ! कुछ गाओगी? सुरमा क्यो नही प्रियतम ! (गाती है) सम्हाले कोई कैसे प्यार उठता है चञ्चल भर लाता है आंखों मे जल बिछलन कर, चलता है उस पर लिये व्यथा का भार मिसक-सिमक उठता है मन मे किम सुहाग के अपनेपन मे 'छुईमुई'-मा होता, हसता मचल-मचल कितना है सुकुमार देवगुप्त सुरमा । तुम कितनी मधुर हो-मेरे जीवन की ध्रुवतारिका ! [नेपथ्य से] "यह तुम्हारे दुर्भाग्य के मन्दग्रह की प्रभा है !" देवगुप्त-(चौंककर) -यह कौन ? १३८ : प्रसाद वाङ्मय