पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१५५

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? यह क्या ? [नेपथ्य से "मैं हूँ। सुरमा के उपवन का यक्ष। सावधान ! इस -अपनी विपत्ति और अलक्ष्मी से अलग हो जाओ, नहीं तो युद्ध मे तुम्हारा निधन होगा।" देवगुप्त-यक्ष असम्भव ! यक्ष और कोई नही, मनुष्य है। तुम कौन हो, प्रवञ्चक ? [नेपथ्य से] "मैं यक्ष हूँ-तुम्हारी इच्छा हो नो वाण चलाकर देख लो-वही फिर लौट कर तुम्हे लगता है कि नहीं। मै फिर सावधान कर देता हूँ-सुरमा को अभी अपने पास से अलग करो, नही तो पछताओगे।" देवगुप्त-तो मै....... [नेपथ्य से]] हां, हां, तुम, यदि तुम्हे मृत्यु का आलिगन न करना हो तो सुरमा के बाहुपाश से अपने को मुक्त करो।" [देवगुप्त भयभीत होकर सुरमा को देखता है|सुरमा हताश दृष्टि से उसे देखती है/दूर से कोलाहल की ध्वनि] देवगुप्त [नेपथ्य से]] "यह है तुम्हारी सुख-निद्रा का अन्त-सूचक शत्रु-सेना का शब्द ! मूर्ख ! अब भी भागो ?" [देवगुप्त भयभीत सुरमा को छोड़कर जाता है । 'प्रियतम सुनो-सुनो' कहती मुरमा रह जाती है। विकटघोष का प्रवेश] सुरमा-हे भगवान् ! विकटघोष-रमणी ! जब तुम्हे कोई त्रतने को कहता है, तो पैरो मे पीड़ा का अनुभव करने लगती हो। जव विश्राम का ममय होता है, तो पवन से भी तीव्रगति धारण करती हो। तुम स्नेह मे पिच्छिल, जल से अधिक तरल, पत्थर से भी कठोर ! इन्द्रधनुप से भी सुन्दर बहुरंगशालिनी स्त्री -तुमको..." सुरमा-तुम कौन हो ? यक्ष नही, तुम्हारा स्वर तो परिचित-सा है । विकटघोष -(बनावटी बाल अलग करके)-परिचय ? तुम लोगों से परिचय आकाश-तट के डूबते हुए तारों का-मा है उज्ज्वल आलोक फैलाकर अन्धकार में विलीन हो जाना । ओह, जब नि श्वास ले-लेकर । सकती हुई, किमी मूर्ख की छाती पर • कुमार कुसुम-सी व्याकुल होकर तुम पतित रहती हो, तब भी तुम्हारे भीतर व्यंग हमा करता है ! जब स्वयं प्राण देने के लिए प्रस्तुत होती हो, तब वह कितने जीवन राज्यश्री : १३९