पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१६७

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गर्व, सारी वीरता, अनन्त विभव, अपार ऐश्वर्य, हृदय की एक चोट से-संसार की एक ठोकर से-निस्मार लगने लगा। राज्यश्री-भाई ! दुःखमय मानव जीवन है। उसे अभ्यास पड़ जाता है, इसीलिये सबके मन में तीव्र विराग नहीं होता। पर, तुम इतने दुर्वल होगे, यह मैं नही जानती थी ! मैं स्त्री हूँ-स्वभाव-दुर्बल नारी ! मेरा अनुकरण न करो, भाई ! चलो हम लोग दूसरों के दुख-सुख में हाथ बंटावें। हर्षवर्द्धन-चलो, पराक्रम से जो सम्पत्ति, शस्त्र-वल से जो ऐश्वर्य मैंने छीन लिया है, उसे पात्रों को दे दूं। हम राजा होकर कंगाल बनने का अभ्यास करे । राज्यश्रो-चलो भाई ! जहां तक वन पड़े, लोक-मेवा करते अन्त में हम दोनों साथ ही काषाय लेंगे। [सबका प्रस्थान] [यवनिका] चतुर्थ अङ्क प्रथम दृश्य [कानन में-साधु के वेष में विकटघोष] सुरमा-यह आज नया रूप कैमा? विकटघोप-चान्यकुब्ज मे स्वर्ण और रत्न की वर्षा हो रही है सुरमा ! राज्यश्री अपने समस्त कोष का अद्भुत दान कर रही है। वहाँ भी लूटना चाहिये न। सुरमा [-अब समझी। मुझे तो तुम्हारा यह रूप देख कर वडा सन्देह हुना था। विकटघोष-यही न कि मै फिर माधु तो नही हो गया ? (हँसता है) [उसके साथी दस्यु साधु के रूप में आते हैं] एकदस्यु--परन्तु अब हम लोग कहाँ चलेगे, कान्यकुब्ज का दान तो अन्तप्राय है। अब सुना गया है कि यही प्रयाग मे ही फिर से दान होगा। और, वह चीनी भिक्षु भी माथ ही आ रहा है । विकटघोप-चीनी भिक्षु !--न जाने क्यों उसे इतना आदर मिल रहा है ! दूसरादस्यु--और साथ-ही-साथ धन भं. सुना है कि पञ्चनद के उदितराज; कामरूप के कुमारराज, वलभी के ध्रुवभट भी यही आ रहे हैं और सम्राट हर्षवर्द्धन सर्वस्व दान करेंगे। - राज्यश्री. १५१