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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१६८

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सुरमा-तो मैं भी चलूंगी। विकटघोष-इसी रूप में ? [सुरमा नेपथ्य में जाती है और अवधूती वनकर आती है] सुरमा- अलख अरूप तेरा नाम, मब सुखधाम, जीवन ज्योति स्वरूप । मंगल गान, एक समान, सब छाया की धूप ॥ अलख अरूप [सब गाते हुए जाते हैं] [दो वौद्ध साधुओं का प्रवेश धर्मसिद्धि-इतना अपमान ! वह चीनी भिक्षु भयानक पण्डित निकला ! शीलसिद्धि-महायान ! तान्त्रिक उपासनाओं से भरा हुआ एक इन्द्रजाल ! उसकी उन्नति ! भगवान् तथागत ! तुम्हारे सत्य का इतना दुरुपयोग ! धर्मसिद्धि -अज्ञान प्रायः प्रबल हो जाता है और असत्य अधिक आकर्षक होता है, किन्तु यह चीनी यात्री और हर्ष दोनों ही इसके प्रधान कारण हैं । शीलसिद्धि-फिर उपाय ? धर्मसिद्धि -उपाय होगा। देखा नहीं-यह दस्युओं का दल साधु बनकर आ रहा है । दान का अतिरूप है यह; जब ऐसे लोग भी उस पुण्यभाग के अधिकारी होंगे, तब वह स्वयं विकृत होगा। चलो महास्थविर से कहना है । शीलसिद्धि-वे तो अत्यन्त उत्तेजित हैं। धर्मसिद्धि-चलो भी। [प्रस्थान/दृश्यान्तर] द्वितीय दृश्य [प्रयाग में गङ्गा-तट पर हर्षवर्द्धन सपरिवार] राज्यश्री-भाई, भण्डि ने क्या कहा ? हर्षवर्द्धन-गुप्तकुल का दुर्नाम नरेन्द्र प्राणों के लिए अत्यन्त भयभीत है। वह सन्धि का प्रार्थी है और वह कहता है कि उम हत्या में वेश्या का मम्पर्क था, उसका नहीं। १५२:प्रसाद वाङ्मय