पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१६९

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राज्यश्री -फिर भी वह क्षम्य है। अपना सम्बन्धी हे । भाई, जाने दो ! आज हम लोग दान देने चल रहे है, क्षमा करो भाई ! हर्षवर्द्धन - तब तुम्हारी इच्छा । मेग हृदय नही क्षमा करेगा, मैं अशक्त हूँ। [एक दौवारिक का प्रवेश] दौवारिक-जय हो देव ! हर्षवर्द्धन क्या है ? दौवारिक-महाश्रमण पर आज एक भयानक आक्रमण हुआ था, किन्तु वे बन गये। हर्षवर्द्धन-महाश्रमण पर ! उपद्रवी पकड़े गये ? दीवारिक-नही देव ! वे निकल भागे। ऐमा विदित होता है कि महाश्रमण के प्राण लेने का षड्यन्त्र था, जिसके भीतर धार्मिक द्वेष काम कर रहा था। हर्षवर्द्धन-धर्म में भी यह उपद्रव ! राज्यश्री, देखो वहन ! सब स्थानों पर क्षमा की एक सीमा होती है -- (दौवारिक से)-जाओ डौंडी पिटवा दो कि यदि महाश्रमण का एक रोम भी छू गया, तो ममस्त विरोधियों को जीवित जलना पड़ेगा। राज्यश्री-चलो भाई ! हम लोग यह महासमारोह दूर से देखें। [सवका प्रस्थान । दूसरी ओर से दो भिक्षुओं का प्रवेश] पहला-यही होना चाहिये । अब धर्म नहीं बचेगा। दूसरा -अब दूसरा उपाय नही। पहला-तो फिर वही ठीक किया जाय। दूसरा-वह तो प्रस्तुत है ! पहला-तो फिर चलो। [दोनों का प्रस्थान दृश्यान्तर] तृतीय दृश्य [प्रयाग का दूसरा भाग, सुरमा का प्रवेश] सुरमा-जैसे अंतिम अभिनय हो ! आज यह क्या होगा ? इतना बड़ा उत्पात ऐसे ही चला करेगा ? असम्भव है । तो ? मैंने रोक नही लिया, नहीं मानता-हत्या करते-करते कितना निर्दय-हृदय हो गया है ! और मैं कहाँ चल रही हूँ, वही जीवन, किन्तु वह धीर धारा न रही ! ठठा कर हँसना, नाचते हुए स्थिर जीवन में एक आन्दोलन उत्पन्न कर देना, नहीं, यह कृत्रिम है, यह नही चलेगा ! राज्यश्री को देखती हूँ, तब मुझे अपना स्थान सूचित होता है-पता चलता है कि मैं कहाँ हूँ ! चलू, रोक सकूँ! राज्यश्री : १५३