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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१७०

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[सुरमा का प्रस्थान, दो नागरिकों व्यग्न भाव से प्रवेश पहला-इतना बड़ा उत्पात ! दूसरा-होम करते हाथ जले ! पहला - ना भाई ! कितने ही ढोंगी घुस आते है-अधिक पुण्य भी करने में कितना पाप हो सकता है ! दूसरा-परन्तु वह राजा का प्रताप था ! सुना नही कि उस नीच हत्यारे का हॉथ कांप कर रह गया। पहला-पकड़ लिया गया कि नही ? दूसरा-चलो देखा जाय । [दोनों का प्रस्थान दृश्तान्तर] चतुर्थ दृश्य [बुद्ध-प्रतिमा के सम्मुख सम्राट हर्षवर्द्धन और प्रमुख सामन्तगण- तथा चीनी यात्री सुएनच्वाङ्ग] [हर्षवर्द्धन सव मणि रत्न दान करता हुआ अपना सर्वस्व उतार देता है] हर्षवर्द्धन (राज्यश्री से) दो बहन । एक वस्त्र । [राज्यश्री देती है] हर्षवर्द्धन--क्यो मेरी इसी विभूति और प्रतिपत्ति के लिए हत्या की जा रही थी न? मैं आज मबसे अलग हो रहा हूँ-यदि कोई शत्रु मेरा प्राणदान चाहे, तो वह भी दे सकता हूँ। ["जय महाराजाधिराज हर्षवर्द्धन की जय"-का तुमुलघोष] सुएनच्चांग-यह भारत का देव-दुर्लभ दृश्य देखकर सम्राट् ! मुझे विश्वास हो गया कि यही अमिताभ की प्रसव-भूमि हो सकती है । [विकटघोष को लिये हुए प्रहरियों का प्रवेश] राज्यश्री-महाश्रमण, मुझे भी एक वस्त्र दीजिये। सुएनच्चांग-सर्वस्व दान करने वाली देवी ! मैं तुम्हे कुछ दूं-यह मेरा भाग्य ! तुम्ही मुझे वरदान दो कि भारत से जो मैंने सीखा है, वह जाकर अपने देश में मुनाऊँ । लो देवि !-(वस्त्र देता है) [हर्ष और राज्यश्री एक-एक वस्त्र में खड़े होते हैं] भण्डि-देव, यह दान तो हो चुका, अब मैं भी कुछ मांगता हूँ-न्याय दीजिये । हर्षवर्द्धन-यह ! साहसिक ! क्यों तुम मेरे प्राण चाहते थे न ? १५४: प्रसाद वाङ्मय