पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१८८

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उसका आसक्ति अन्य पर न किसी अन्य के लिये । ममत्व घूम रहा चेतना लिये ॥ सर्वस्व उसी का वही सव का स्वरूप है। वह है कि नहीं है ? विचित्र प्रश्न मत करो। इस विश्व दयासिन्धु बीच सन्तरण करो। वह और कुछ नहीं, विशाल विश्व-रूप है; तू खोजता किसे अरे आनन्दरूप है। भिक्षु-(विहार से निकल कर)-वन्दे ! साधु-स्वस्ति ! आनन्द ! कहो जी, इस विहार का क्या नाम है और इसके स्थविर कौन हैं ? भिक्षु-महाशय, आर्य सत्यशील इस विहार के स्थविर हैं और कानीर विहार इसका नाम है। साधु-वाह, क्या यहाँ आतिथ्य के लिए भी कोई प्रबन्ध है ? क्या कोई श्रमण अतिथि रूप से यहां थोड़ा विश्राम कर सकता है ? भिक्षु-आर्य, आपका शुभ नाम सुनूं, फिर जाकर स्थविर से निवेदन करूं। साधु-कह देना कि प्रेमानन्द आया है। [भिक्षु भीतर जाकर लौट आता है] भिक्षु-चलिये, आतिथ्य के लिए हम लोग प्रस्तुत हैं । [बड़बड़ाता हुआ विशाख आता है] विशाख-(आप ही)-सिर घुटाते ही ओले पड़े। कोई चिन्ता नहीं। इसी में तो आना था । झञ्झट जितनी जल्द आवे-आवे चली जावे तो अच्छा ! अच्छा हम जो इस पचड़े में पड़े तो हमको क्या ? परोपकार ! ना बाबा ! झूठ बोलना पाप है। चन्द्रलेखा को यदि न देखता तो सम्भव है कि यह धर्म-भाव न जगता। मैंने सुना है कि मेरे गुरुदेव श्री प्रेमानन्दजी आये हैं और इसी अधर्म विहार में ठहरे हैं। वह भिक्षु तो मुझे देखते काटने को दौड़ेगा; फिर भी कुछ चिन्ता नहीं, गुरुदेव का तो दर्शन अवश्य करूंगा (उच्च स्वर में) अजी यहाँ कौन है ? भिक्षु-(बाहर निकल कर) क्या है जी, क्या कोलाहल मचाया है ? विशाख-गुरुजी यहां पधारे हैं, मैं उनका दर्शन करना चाहता हूँ। भिक्षु-कौन ? तुम्हारे गुरुजी कौन है; एक प्रेमानन्द नाम का संन्यासी आया है। क्या वही तो तुम्हारा गुरु नहीं है ? विशाख -क्या तुम उसी स्थविर के चेले हो, जिसने कि एक अनूढा कन्या को पकड़ कर रक्खा है? १०२:प्रसाद वाङ्मय