पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१९०

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विशाख-गुरुदेव सहनशीलता की भी सीमा होती है। अब आप इस पाखण्डी से बात न कीजिये । घड़ा भर गया है ! स्वतः फूटेगा। प्रेमानन्द -मना आनन्द मत, कोई दुखी है। सुखी संसार है तो तू सुखी है। न कर तू गर्व औरों को दवा कर । कठिनता से दबाकर तू दुखी है ।। -बस चले जाओ। अपने विहार में विहार करो। किन्तु यह ध्यान रखना, तुम्हें इसका प्रतिफल मिलेगा। सत्यशील-भला, भला ! बहुत-सा देखा है। [सत्यशील और भिक्षु जाते हैं] प्रेमानन्द-बेटा विशाख ! तुम अब कहाँ जाओगे ? विशाख-गुरुदेव ! कृपा कर बतलाइये कि आप यहाँ कैसे ? मुझे जहाँ आज्ञा मिलेगी वही जाऊँगा! प्रेमानन्द-(कुछ विचार कर)-ठीक है, तेरा मार्ग भिन्न है, तुझे आवश्यकता है। जब तक सुख भोग कर चित्त को उनसे नही उपराम होता, मनुष्य पूर्ण वैराग्य नहीं पाता है । तुझे कर्मयोग के व्यावहारिक रूप का ही अनुकरण करना चाहिये । विशाख -भगवन्, सुख भोग कर भी बहुत लोग उससे नही घबराते है और शान्ति को नही पाते है ? प्रमानन्द - और यह भी देखा गया है कि बिना कुछ भी सुख किये, किशोर अवस्था में ही कितनों को पूर्ण शान्तिमय वैराग्य हो जाता है। इसका कारण केवल संस्कार है। इसलिये वैराग्य अनुकरण करने की वस्तु नही, जब वह अन्तरात्मा में विकसित हो, जब उलझन की गांठ सुलझ जावे, उसी समय हृदय स्वतः आनन्दमय हो जाता है- ममीर स्पर्श कली को नही खिलाता है। विकस गयी, खुली, मकरन्द जब कि आता है । विशाख–देव ! फिर परिश्रम की कोई आवश्यकता नहीं। वह तो जब आने को होगा, आवेगा। प्रेमानन्द-विशाख उधर देखो; कमल पर भंवरों को- मधुमत्त मिलिन्द माधुरी, मधुराका जग कर बिता चुके । अरविन्द प्रभात में भला, फिर देता मकरन्द क्यों उन्हे ? १७४: प्रसाद वाङ्मय