पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१९१

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-सन्ध्या के मधु ने रात भर भ्रमरों को आनन्द-जागरण में रखा, सबेरे ही फिर मिला, दिन भर फिर मस्त । हृदय-कमल जब विकसित हो जाता है, तब चेतना बराबर आनन्द मकरन्द पान किया करती है जिसमें नशा टूटने न पावे। सत्कर्म हृदय को विमल बनाता है और हृदय में उच्च वृत्तियां स्थान पाने लगती हैं। इसलिये सत्कर्म-कर्मयोग को आदर्श बनाना, आत्मा की उन्नति का मार्ग स्वच्छ और प्रशस्त करना है। विशाख-फिर क्या आज्ञा है ? प्रेमानन्द-यही कि जब तक शुद्ध-बुद्धि का उदय न हो, तब तक स्वार्थ-प्रेरित होकर भी सत्कर्म करणीय है। तुम्हारा उद्देश्य उत्तम होना चाहिये। जो कर्तव्य है उसे निर्भय होकर करो। विशाख--(चरण पकड़ कर)-वही होगा गुरुदेव ! कृपा बनी रहे । हां, आपने क्या गुरुकुल छोड़ दिया ? अब वहां पर कौन है ? प्रेमानन्द-स्थान कभी खाली नही रहते, अब वह सब अच्छा नहीं लगता। परिव्राजक होकर प्रकृति का दर्शन करूं, यही अभिलाषा है- इस विचित्र संसार से। औरो को आतंक न हो अविचार से। कमी न हो आनन्द-कोश मे, पूर्ण हो। वही न चालो में पड़ कोई चूर्ण हो। सीधी राह पकड कर सीधे चले चलो। छले न जाओ औरों को भी मत छलो॥ निर्बल भी हो, मत छोड़ना, शुचिता से इस कुहक-जाल को तोडना । [प्रस्थान] दृश्यान्तर घबराना मत सत्य-पक्ष पंचम दृश्य [स्थान-संघाराम का एक अंश] [बन्दिनी चन्द्रलेखा गाती है] देखी नयनो ने एक झलक, वह छवि की छटा निराली थी। मधु पीकर मधुप रहे सोये, कमलो मे कुछ-कुछ लाली थी। सुरभित हाला पी चुके पलक; वह मादकता मतवाली थी। भोले मुख पर वे खुले अलक, सुख की कपोल पर लाली थी। देखी नयनों॥ विशाख: १७५