पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/१९३

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नरदेव-(हंसकर) आप भी तो ऐसे ही परिव्राजक हैं न। ऐसों को ऐसा ही कड़ा दण्ड देना चाहिये । चुप रहिये । प्रेमानन्द-मैं वैसा भिक्षु नही। राजन्, सत्ता का अपव्यय न करो। सत्ता- शक्तिमानों को निर्बलों की रक्षा के लिए मिली है, औरों को डराने के लिए नहीं। प्रजा के पाप का फल या परिणाम ही न्याय है । तब, राजा को और पाप करके पाप नहीं दबाना चाहिये । न्याय के दोनों ही आदेश हैं, दण्ड और दया। इसलिए शासक के आचरण ऐसे होने चाहिए जिससे प्रजा को उत्तम आदर्श मिले, प्रजा में दया आदि सद्गुणों का प्रचार हो। नरदेव-(सिर झुकाकर)-जैसी आज्ञा । प्रेमानन्द-यह अपनी आज्ञा बन्द करो कि सब विहार जला दिए जायें । सुन्दर आराधना की, करुणा की भूमि को नृशंसता-बर्बरता का राज्य न बनाओ। तुम नहीं जानते कि 'यथा राजा तथा प्रजा।' नरदेव-वैसा ही होगा। विशाख-हटिये यहाँ से वह देखिये जली हुई दीवार गिरना चाहती है। [सब लोग हटते हैं । दीवाल गिरती है] यवनिका द्वितीय अङ्क प्रथम दृश्य [स्थान-पहाड़ी सरने के समीप विशाख और चन्द्रलेखा] विशाख-चन्द्रलेखा! यह कमा रमणीक प्रदेश है ? जी नहीं ऊबता । बनस्थली भी ऐसी मधुरिमामयी होती है, इसका मुझे कभी ध्यान नही था। हम लोग क्या सदैव इसी तरह प्रकृति सुन्दर भ्रूभंगी देखते जीवन व्यतीत कर सकेगे ? चन्द्रलेखा-विशाख ! कौन कह सकता है ? क्या क्षितिज की सीमा से उठते हुए नीलनीरद खण्ड को देख कर कोई बतला देगा कि यह मधुर फुहारा बरसावेगा कि करकापात करेगा। भविष्य को भगवान् ने बड़ी सावधानी से छिपाया है और उसे आशामय बनाया है। विशाल-प्रिये ! आज मैं भी क्या उस आशामय भविष्य का आनन्द मनाऊँ, हृदय में रसीली वंशी बजाऊँ ? क्या मैं... १२ विशास: १७७